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अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 27/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वा
देवता - चन्द्रमाः, इन्द्राणी
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - स्वस्त्ययन सूक्त
विषू॑च्येतु कृन्त॒ती पिना॑कमिव॒ बिभ्र॑ती। विष्व॑क्पुन॒र्भुवा॒ मनो ऽस॑मृद्धा अघा॒यवः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठविषू॑ची । ए॒तु॒ । कृ॒न्त॒ती । पिना॑कम्ऽइव । बिभ्र॑ती । विष्व॑क् । पु॒न॒:ऽभुवा॑: । मन॑: । अस॑म्ऽऋध्दा: । अ॒घ॒ऽयव॑: ॥१.२७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
विषूच्येतु कृन्तती पिनाकमिव बिभ्रती। विष्वक्पुनर्भुवा मनो ऽसमृद्धा अघायवः ॥
स्वर रहित पद पाठविषूची । एतु । कृन्तती । पिनाकम्ऽइव । बिभ्रती । विष्वक् । पुन:ऽभुवा: । मन: । असम्ऽऋध्दा: । अघऽयव: ॥१.२७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 27; मन्त्र » 2
विषय - सेना-सञ्चालन।
भावार्थ -
( विषूची इव ) सूच्यग्र के समान आगे थोडे सैनिकों को रखकर सूचीव्यूहमें चलने हारी या संकेतों से चलनेवाली सेना (पिनाकम्) धनुष को हाथ में ( विभ्रती ) लिये हुए ( एतु ) आगे बढे, ( पुनर्भुवाः ) शत्रु सेना जो कि तितर बितर होगई है वह यदि पुनः सेना रूप में होकर चढ़ाई करे तो हमारी सेना का आक्रमण शत्रु की सेना के मनों को (विष्यक्) सब तरफ पुनः नाना दिग्गामी करदें। इस प्रकार हमारे शत्रु सैनिक ( अघायवः ) पापी पुरुष ऋद्धि से रहित हों।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - स्वस्त्ययनकामोऽथर्वा ऋषिः। चन्द्रमा इन्द्राग्नी च देवता। १ पथ्यापंक्तिः, २, ३, ४ अनुष्टुभः। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
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