Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 1 > सूक्त 27

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 27/ मन्त्र 4
    सूक्त - अथर्वा देवता - चन्द्रमाः, इन्द्राणी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - स्वस्त्ययन सूक्त

    प्रेतं॑ पादौ॒ प्र स्फु॑रतं॒ वह॑तं पृण॒तो गृ॒हान्। इ॑न्द्रा॒ण्ये॑तु प्रथ॒माजी॒तामु॑षिता पु॒रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । इ॒त॒म् । पा॒दौ॒ । प्र । स्फु॒र॒त॒म् । वह॑तम् । पृ॒ण॒त: । गृ॒हान् । इ॒न्द्रा॒णी । ए॒तु॒ । प्र॒थ॒मा । अजी॑ता । अमु॑षिता । पु॒र: ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रेतं पादौ प्र स्फुरतं वहतं पृणतो गृहान्। इन्द्राण्येतु प्रथमाजीतामुषिता पुरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । इतम् । पादौ । प्र । स्फुरतम् । वहतम् । पृणत: । गृहान् । इन्द्राणी । एतु । प्रथमा । अजीता । अमुषिता । पुर: ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 27; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    शत्रु सेना को जीतकर उमंग से भरा अपनी सेना का प्रत्येक सैनिक ऐसा अपने तईं कहे कि (पादौ) हे मेरे दोनों पैरों ! ( प्रेतम् ) चलो, ( प्रस्फुरतम् ) जल्दी २ उठो, ( पृणतः ) अपनी प्रजा के पालक शत्रु राजा के ( गृहम् ) घरों तक ( वहतम् ) हमें ले चलो । ( इन्द्राणी ) मुख्य सेनापति की सेना ( प्रथमा ) जो कि सर्वश्रेष्ठ है (अजीता) जो कि जीति नहीं गई ( अमुषिता ) जिसका दिल चुराया नहीं गया अर्थात् जिसने कभी धैर्य त्याग नही किया वह सेना ( पुरः ) शत्रु के नगरों को ( एतु ) प्राप्त हो।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - स्वस्त्ययनकामोऽथर्वा ऋषिः। चन्द्रमा इन्द्राग्नी च देवता। १ पथ्यापंक्तिः, २, ३, ४ अनुष्टुभः। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top