अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 34/ मन्त्र 5
प्र॑जा॒नन्तः॒ प्रति॑ गृह्णन्तु॒ पूर्वे॑ प्रा॒णमङ्गे॑भ्यः॒ पर्या॒चर॑न्तम्। दिवं॑ गछ॒ प्रति॑ तिष्ठा॒ शरी॑रैः स्व॒र्गं या॑हि प॒थिभि॑र्देव॒यानैः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒ऽजा॒नन्त॑: । प्रति॑ । गृ॒ह्ण॒न्तु॒ । पूर्वे॑ । प्रा॒णम् । अङ्गे॑भ्य: । परि॑ । आ॒ऽचर॑न्तम् । दिव॑म् । ग॒च्छ॒ । प्रति॑ । ति॒ष्ठ॒ । शरी॑रै: । स्व॒:ऽगम् । या॒हि॒ । प॒थिऽभि॑: । दे॒व॒ऽयानै॑: ॥३४.५॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रजानन्तः प्रति गृह्णन्तु पूर्वे प्राणमङ्गेभ्यः पर्याचरन्तम्। दिवं गछ प्रति तिष्ठा शरीरैः स्वर्गं याहि पथिभिर्देवयानैः ॥
स्वर रहित पद पाठप्रऽजानन्त: । प्रति । गृह्णन्तु । पूर्वे । प्राणम् । अङ्गेभ्य: । परि । आऽचरन्तम् । दिवम् । गच्छ । प्रति । तिष्ठ । शरीरै: । स्व:ऽगम् । याहि । पथिऽभि: । देवऽयानै: ॥३४.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 34; मन्त्र » 5
विषय - मोक्षमार्ग का उपदेश ।
भावार्थ -
जिस प्रकार (पूर्वे) पूर्वकल्प के ऋषिजन अथवा पूर्व पुरुष (प्रजानन्तः) ब्रह्म और आत्मा के तत्व को भली प्रकार जानते हुए समस्त अङ्गों में (परि आचरन्तं) सर्वत्र गति करते हुए (प्राणं) प्राण को वश करते हैं उसी प्रकार मुमुक्षु जन भी योग-साधनों से उस प्राण को (प्रति गृह्णन्तु) अपने वश करें। हे मुमुक्षु पुरुष ! तू भी (शरीरैः) अपने इन शरीरों द्वारा (प्रति तिष्ठाः) आत्मा को प्रतिष्ठित साधनासम्पन्न, सामर्थ्यवान् कर और फिर (देवयानैः पथिभिः) विद्वानों द्वारा गमन करने योग्य, मुमुक्षु मार्ग, देवयान नामक ज्ञानमार्गों से (स्वर्गं) उस पुण्यफल, सुखमय मोक्ष अवस्था को (याहि) प्राप्त कर और (दिवं) उस प्रकाशस्वरूप ब्रह्मपद को भी (गच्छ) प्राप्त कर ।
यह सूक्त सायण ने बलि करने योग्य वध्य पशु पर लगाते हुए कौशिक सूत्रप्रदर्शित विनियोग लेकर महा-अनर्थ किया है। यदि कौशिक सूत्रप्रदर्शित दिशा से ही सर्वलोकाधिपत्यकाम ज्ञानी परक यह सूक्त लगाया जाता तो उत्तम था।
टिप्पणी -
(प्र०) ‘प्रतिगुहह्णन्तु देवाः’ (तृ०) ‘ताभ्यां गच्छ प्रति’ (च०) ‘पथिभिः शिवेभिः’ इति पैप्प० सं० (प्र०) ‘प्रतिगृह्णन्ति’ तृतीय चतुर्थयोः क्रमविपर्ययः। (तृ०) ‘ओषधीषु प्रति’, तै० स०। (च०) इति मै० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। पशुपतिर्देवता। पशुभागकरणम्। १-४ त्रिष्टुभः। पञ्चर्चं सूक्तम्॥
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