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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 13

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 13/ मन्त्र 2
    सूक्त - शन्तातिः देवता - चन्द्रमाः, विश्वे देवाः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रोग निवारण सूक्त

    द्वावि॒मौ वातौ॑ वात॒ आ सिन्धो॒रा प॑रा॒वतः॑। दक्षं॑ ते अ॒न्य आ॒वातु॒ व्य॒न्यो वा॑तु॒ यद्रपः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्वौ । इ॒मौ । वातौ॑ । वा॒त॒: । आ । सिन्धो॑: । आ । प॒रा॒ऽवत॑: । दक्ष॑म् । ते॒ । अ॒न्य: । आ॒ऽवातु॑ । वि । अ॒न्य: । वा॒तु॒ । यत् । रप॑: ॥१३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्वाविमौ वातौ वात आ सिन्धोरा परावतः। दक्षं ते अन्य आवातु व्यन्यो वातु यद्रपः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्वौ । इमौ । वातौ । वात: । आ । सिन्धो: । आ । पराऽवत: । दक्षम् । ते । अन्य: । आऽवातु । वि । अन्य: । वातु । यत् । रप: ॥१३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 13; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    जिस प्रकार पृथ्वी पर ये दो वायुएं बहती हैं जो सिन्धु से चल कर दूर दूर तक के स्थानों तक पहुंच जाती हैं, उन में एक तो जल बरसा कर प्रजा के लिये अन्न उत्पन्न करती हैं और दूसरी हानिकारक रोग और ग्राम के मलिन वस्तुओं को आंधी बन कर उड़ा ले जाती है, इसी प्रकार हे पुरुष ! तेरे शरीर में भी (इमौ) ये (द्वौ वातौ) दो वायु हैं प्राण और अपान। ये दोनों (आ सिन्धोः) सिन्धु देश अर्थात् रुधिर के एकत्र होने का हृदय और फुफ्फुसों का वह प्रदेश जहां से नाड़ियों द्वारा रक्त बह कर सारे शरीर में फैलता और सारे शरीर से नीला मलिन रक्त बहकर ह्रदय में पुनः आ जाता है उस सिन्धु रूप हृदय और फुफ्फुस प्रदेश से (आ परावतः) शरीर के दूर से दूर स्थान तक (वातः) गति करते हैं, पहुंचते हैं। (अन्यः) इन में से एक (ते) तेरे लिये (दक्षं) बल को (आ वातु) प्राप्त कराने में समर्थ है और (अन्यः) दूसरा (यद् रपः) जो मलिन अंश है उसको (वि वातु) बाहर करे। शरीर में दो ही प्राण की गति हैं भीतर से वायु को बाहर फेंकना और बाहर से भीतर लेना। शरीर में भी दो क्रिया हैं। एक रक्त का शुद्ध स्वच्छ वायु पाकर शुद्ध हो जाना और शरीर का पुनः हरा भरा हो जाना, दूसरा मलिन अंश का रक्त से पृथक् होकर प्रश्वास, मूत्र और प्रस्वेद के मार्ग से बाहर हो जाना। प्राण और अपान में प्राण रक्त को स्वच्छ करता और अपान रक्त के मलिन अंश को प्रश्वास, प्रस्वेद और मल मूत्र द्वारा शरीर से बाहर कर देता है, उसी का यहां उपदेश किया है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शंताति र्ऋषिः। चन्द्रमा उत विश्वे देवा देवताः। १-७ अनुष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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