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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 13

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 13/ मन्त्र 6
    सूक्त - शन्तातिः देवता - चन्द्रमाः, विश्वे देवाः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रोग निवारण सूक्त

    अ॒यं मे॒ हस्तो॒ भग॑वान॒यं मे॒ भग॑वत्तरः। अ॒यं मे॑ वि॒श्वभे॑षजो॒ऽयं शि॒वाभि॑मर्शनः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । मे॒ । हस्त॑: । भग॑ऽवान् । अ॒यम् । मे॒ । भग॑वत्ऽतर: । अ॒यम् । मे॒ । वि॒श्वऽभे॑षज: । अ॒यम् । शि॒वऽअ॑भिमदर्शन: ॥१३.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं मे हस्तो भगवानयं मे भगवत्तरः। अयं मे विश्वभेषजोऽयं शिवाभिमर्शनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । मे । हस्त: । भगऽवान् । अयम् । मे । भगवत्ऽतर: । अयम् । मे । विश्वऽभेषज: । अयम् । शिवऽअभिमदर्शन: ॥१३.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 13; मन्त्र » 6

    भावार्थ -
    अमृतपाणि वैद्य की भावना। हे रोगी ! तू उचित रूप से यह जान कि (अयं मे हस्तः) यह मेरा हाथ (भगवान्) बड़े भारी ऐश्वर्य से युक्त है। और (अयं में भगवत्-तरः) यह दूसरा हाथ उससे भी अधिक विभूतिमान् एवं चमत्कार करने वाला है। इन में विशेष गुण यह है कि (अयं मे) यह मेरा हाथ (विश्व-भेषजः) सब प्रकार के रोगों की चिकित्सा करता है। (अयम्) और इसका (शिव-अभिमर्शनः) स्पर्श करना भी शान्ति और आनन्ददायक एवं हितकारी है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शंताति र्ऋषिः। चन्द्रमा उत विश्वे देवा देवताः। १-७ अनुष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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