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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 15

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 15/ मन्त्र 13
    सूक्त - अथर्वा देवता - मण्डूकसमूहः, पितरगणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वृष्टि सूक्त

    सं॑वत्स॒रं श॑शया॒ना ब्रा॑ह्म॒णा व्र॑तचा॒रिणः॑। वाचं॑ प॒र्जन्य॑जिन्वितां॒ प्र म॒ण्डूका॑ अवादिषुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒म्ऽव॒त्स॒रम् । श॒श॒या॒ना: । ब्रा॒ह्म॒णा: । व्र॒त॒ऽचा॒रिण॑: । वाच॑म् । प॒र्जन्य॑ऽजिन्विताम् । प्र । म॒ण्डूका॑: । अ॒वा॒दि॒षु॒: ॥१५.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    संवत्सरं शशयाना ब्राह्मणा व्रतचारिणः। वाचं पर्जन्यजिन्वितां प्र मण्डूका अवादिषुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्ऽवत्सरम् । शशयाना: । ब्राह्मणा: । व्रतऽचारिण: । वाचम् । पर्जन्यऽजिन्विताम् । प्र । मण्डूका: । अवादिषु: ॥१५.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 15; मन्त्र » 13

    भावार्थ -
    वर्षाकाल का वर्णन करते हुए विद्वान् ब्राह्मणों की उपमा से मण्डूकों का भी वर्णन करते हैं—(व्रतचारिणः) व्रत का आचरण करने वाले (ब्राह्मणाः) विद्वान्, वेदज्ञ ब्राह्मण लोग जिस प्रकार वेद का पाठ करते और ऋतु को मनोहर बनाते हैं उसी प्रकार (संवत्सरं) एक वर्ष तक (शशयानाः) बिलों में सोते हुए (मण्डूकाः) मेंढक (पर्जन्यजिन्वितां) मानों मेघ की स्तुति करने वाली (वाचं) वाणी को (प्र अवादिषुः) उत्तम रीति से बोलते हैं। दादुरध्वनि चंहु ओर सुहाई। वेद पढ़त जिभि बहु समुदाई॥ तुलसी०। इसके अतिरिक्त ब्राह्मणों के पक्ष में—(मण्डूका) ब्रह्मानन्द रस में मग्न होने वाले (व्रतचारिणः) ब्रह्मचर्य के पालक (ब्राह्मणाः) वेद के विद्वान् या ब्रह्म के ज्ञाता (संवत्सरं) एक वर्ष को (शशयानाः) बिता कर (पर्जन्यजिन्वितां) उस आनन्द-रस-प्रदाता प्रभु को प्रसन्न करने वाली (वाचं) वेदवाणी का (प्र अवादिषुः) उच्चारण करते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। मरुतः पर्जन्यश्च देवताः। १, २, ५ विराड् जगत्याः। ४ विराट् पुरस्ताद् वृहती । ७, ८, १३, १४ अनुष्टुभः। ९ पथ्या पंक्तिः। १० भुरिजः। १२ पञ्चपदा अनुष्टुप् गर्भा भुरिक्। १५ शङ्कुमती अनुष्टुप्। ३, ६, ११, १६ त्रिष्टुभः। षोडशर्चं सूक्तम्॥

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