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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 15

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 15/ मन्त्र 14
    सूक्त - अथर्वा देवता - मण्डूकसमूहः, पितरगणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वृष्टि सूक्त

    उ॑प॒प्रव॑द मण्डूकि व॒र्षमा आ व॑द तादुरि। मध्ये॑ ह्र॒दस्य॑ प्लवस्व वि॒गृह्य॑ च॒तुरः॑ प॒दः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒प॒ऽप्रव॑द । म॒ण्डू॒कि॒ । व॒र्षम् । आ । व॒द॒ । ता॒दु॒रि॒ । मध्ये॑ । हृ॒दस्य॑ । प्ल॒व॒स्व॒ । वि॒ऽगृह्य॑ । च॒तुर॑: । प॒द: ॥१५.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपप्रवद मण्डूकि वर्षमा आ वद तादुरि। मध्ये ह्रदस्य प्लवस्व विगृह्य चतुरः पदः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उपऽप्रवद । मण्डूकि । वर्षम् । आ । वद । तादुरि । मध्ये । हृदस्य । प्लवस्व । विऽगृह्य । चतुर: । पद: ॥१५.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 15; मन्त्र » 14

    भावार्थ -
    हे (मण्डूकि) मेंढकी ! हे (तादुरि!) तदुर = मेंढक की बच्ची ! तू (वर्षम् उप-वद आ वद) वर्षा को देख कर खूब बोल और सब तरफ़ से बोल और (चतुरः पदः) चारों पैर (विगृह्य) फैला कर (ह्रदस्य मध्ये) तालाब के बीच में (प्लवस्व) तैर। अध्यात्म में—उस आनन्दमय ‘धर्ममेघ’ के वर्षण को लक्ष्य कर के उसका वर्णन करते हैं। हे (मण्डूकि) आनन्दरस में निमग्न चित्तवृत्ते ! (तादुरि) तद्-उर=उस परब्रह्म की तरफ जाने वाले, उस में लीन आत्मा की पुत्री स्वरूप तू (आ वद) उसी का सर्वत्र गान कर और (चतुरः पदः) अन्तःकरण चतुष्टय रूप चारों चरणों को फैला कर (ह्रदस्य) उस आह्लादजनक हृदयरूप मानस-सरोवर में (प्लवस्व) आनन्द से तर, सब दुःखों को पार कर।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। मरुतः पर्जन्यश्च देवताः। १, २, ५ विराड् जगत्याः। ४ विराट् पुरस्ताद् वृहती । ७, ८, १३, १४ अनुष्टुभः। ९ पथ्या पंक्तिः। १० भुरिजः। १२ पञ्चपदा अनुष्टुप् गर्भा भुरिक्। १५ शङ्कुमती अनुष्टुप्। ३, ६, ११, १६ त्रिष्टुभः। षोडशर्चं सूक्तम्॥

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