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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 20

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 20/ मन्त्र 8
    सूक्त - मातृनामा देवता - मातृनामौषधिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पिशाचक्षयण सूक्त

    उद॑ग्रभं परि॒पाणा॑द्यातु॒धानं॑ किमी॒दिन॑म्। तेना॒हं सर्वं॑ पश्याम्यु॒त शू॒द्रमु॒तार्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । अ॒ग्र॒भ॒म् । प॒रि॒ऽपाना॑त् । या॒तु॒ऽधान॑म् । कि॒मी॒दिन॑म् । तेन॑ । अ॒हम् । सर्व॑म् । प॒श्या॒मि॒ । उ॒त । शू॒द्रम् । उ॒त । आर्य॑म् ॥२०.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदग्रभं परिपाणाद्यातुधानं किमीदिनम्। तेनाहं सर्वं पश्याम्युत शूद्रमुतार्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । अग्रभम् । परिऽपानात् । यातुऽधानम् । किमीदिनम् । तेन । अहम् । सर्वम् । पश्यामि । उत । शूद्रम् । उत । आर्यम् ॥२०.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 20; मन्त्र » 8

    भावार्थ -
    (किमीदिनं) अब क्या भोग करूं, अब क्या भोग करूं इस प्रकार विषयलोलुप (यातुधानं) परिणाम में विषम फल, कष्ट पीड़ा उत्पन्न करने हारे विषयाभिलाषी चित्त को मैं (परि-पाणाद्) रक्षा के निमित्त (उद्-अग्रभम्) निगृहीत करता हूं, उसको विषयों में जाने से रोकता हूं। तब (तेन) उस संयत, विषयों से निरुद्ध, एकाग्र चित्त द्वारा (आर्यम्) चाहे वह उच्च गुणों से युक्त पुरुष हो (उत) और चाहे (शूद्रम्) सेवा करने वाला गुणहीन पुरुष हो (पश्यामि) समदृष्टि से देखता हूं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मातृनामा ऋषिः। मातृनामा देवताः। १ स्वराट्। २-८ अनुष्टुभः। ९ भुरिक्। नवर्चं सूक्तम्॥

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