अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 6/ मन्त्र 3
सु॑प॒र्णस्त्वा॑ ग॒रुत्मा॒न्विष॑ प्रथ॒ममा॑वयत्। नामी॑मदो॒ नारू॑रुप उ॒तास्मा॑ अभवः पि॒तुः ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ऽप॒र्ण: । त्वा॒ । ग॒रुत्मा॑न् । विष॑ । प्र॒थ॒मम् । आ॒व॒य॒त् । न । अ॒मी॒म॒द॒: । न । अ॒रू॒रु॒प॒: । उ॒त । अ॒स्मै॒ । अ॒भ॒व॒: । पि॒तु: ॥६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
सुपर्णस्त्वा गरुत्मान्विष प्रथममावयत्। नामीमदो नारूरुप उतास्मा अभवः पितुः ॥
स्वर रहित पद पाठसुऽपर्ण: । त्वा । गरुत्मान् । विष । प्रथमम् । आवयत् । न । अमीमद: । न । अरूरुप: । उत । अस्मै । अभव: । पितु: ॥६.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 6; मन्त्र » 3
विषय - विष चिकित्सा।
भावार्थ -
(गरुत्मान्) पक्षी (सुपर्णः) सुपर्ण = गरुड़ (वा) तुझ को हे विष ! (प्रथमम्) सब से पूर्व (आवयत्) खा लेता है। हे विष ! (न अमीमदः) तू उसको नशा और मूर्छा भी उत्पन्न नहीं करता, (न अरूरूपः) और न उसकी चेतना का लोप करता है। (उत) बल्कि (अस्मै) इसके लिये (पितुः) अन्न ही (अभवः) हो जाता हैं। इसी प्रकार जो पुरुष प्रथम से विपको अपना अन्न का भाग बना लेते हैं उन पर बाद विष का असर नहीं होता, प्रत्युत विष ही उनका पोषक होजाता है।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गरुत्मान् ऋषिः। तक्षको देवता। १-८ अनुष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम्।
इस भाष्य को एडिट करें