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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गरुत्मान् देवता - सुपर्णः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - विषघ्न सूक्त
    71

    सु॑प॒र्णस्त्वा॑ ग॒रुत्मा॒न्विष॑ प्रथ॒ममा॑वयत्। नामी॑मदो॒ नारू॑रुप उ॒तास्मा॑ अभवः पि॒तुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽप॒र्ण: । त्वा॒ । ग॒रुत्मा॑न् । विष॑ । प्र॒थ॒मम् । आ॒व॒य॒त् । न । अ॒मी॒म॒द॒: । न । अ॒रू॒रु॒प॒: । उ॒त । अ॒स्मै॒ । अ॒भ॒व॒: । पि॒तु: ॥६.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुपर्णस्त्वा गरुत्मान्विष प्रथममावयत्। नामीमदो नारूरुप उतास्मा अभवः पितुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽपर्ण: । त्वा । गरुत्मान् । विष । प्रथमम् । आवयत् । न । अमीमद: । न । अरूरुप: । उत । अस्मै । अभव: । पितु: ॥६.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 6; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विष दूर करने के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (विष) हे विष ! (सुपर्णः) शीघ्रगामी (गरुत्मान्) सुन्दर पंखवाले गरुड़ ने (प्रथमम्) प्रसिद्ध (त्वा) तुझको (आवयत्) खाया, तूने [उसे] (न) न तौ (अमीमदः) मत्त किया और (न)(अरूरुपः) घबरा दिया, (उत) किन्तु तू (अस्मै) उसके लिये (पितुः) अन्न (अभवः) हुआ है ॥३॥

    भावार्थ

    जैसे गरुड़, मोर आदि पक्षी अपनी विषपाचक शक्ति से विषधारी सर्प को खाकर अपना शरीर पुष्ट करते हैं, इसी प्रकार सद्वैद्य ओषधि द्वारा विषजनक रोगों का नाश करके संसार में नीरोगता फैलाते हैं ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(सुपर्णः) आ० १।२४।१। सुपर्णाः सुपतना आदित्यरश्मयः, सुपर्णाः सुपतनानीन्द्रियाणि-निरु० ३।१२। शीघ्रगतिः। शोभनपक्षयुक्तः (त्वा) त्वां विषम् (गरुत्मान्) मृग्रोरुतिः। उ० १।९४। इति गॄ शब्दे-उति। गृणाति शब्दायते वायुवेगात् स गरुत् पक्षः। ततो मतुप्। उरगाशनः पक्षिविशेषः। गरुडः (विष) (प्रथमम्) प्रधानम्। अतिप्रभावयुक्तमित्यर्थः (आवयत्=आ अवयत्) वी गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु-लङ्। आवयतिः, अत्तिकर्मा-निघ० २।८। अभक्षयत् (न) निषेधे (अमीमदः) मदी हर्षग्लेपनयोः। ग्लेपनं दैन्यम्। ण्यन्तात् लुङि चङि रूपम्। मत्तं ज्ञानविकलम् अकार्षीः (अरूरुपः) रुप विमोहने ण्यन्तात् लुङि चङि रूपम्। विमूढम् अकार्षीः (उत) अपि तु (अस्मै) गरुत्मते (अभवः) लङ् (पितुः) कमिसनि०। उ० १।७१। इति पा रक्षणे, वा पा पाने, अथवा ओप्यायी वृद्धौ तु प्रत्ययः। धातोः पिभावः। पितुरित्यन्ननाम पातेर्वा पिबतेर्वा प्यायतेर्वा-निरु० ९।२४। अन्नम् ॥

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    विषय

    'गरुत्मान् सुपर्ण'

    पदार्थ

    १.हे (विष) = विष (गरुत्मान्) = कर्म व ज्ञानरूप उत्तम पंखोंवाले (सुपर्ण:) = सम्यक् पालक व पूरणात्मक कर्मों में प्रवृत्त पुरुष ने (प्रथमम्) = सर्वप्रथम (त्वा आवयत्) = तेरा भक्षण किया है, (न अमीमदः) = न तो तुने उसे मदयुक्त-ज्ञानविकल किया और न ही मूढ बनाया [रुप विमोहने]। २. ज्ञानविकल व मूढ़ बनना तो दूर रहा (उत) = प्रत्युत तू (अस्मै) = इस गरुत्मान् सुपर्ण के लिए (पितुः अभव:) = रक्षक अन्नवाला बन गया। गरुड़ पक्षी साँप को खा जाता है, परन्तु उसपर साँप के विष का घातक प्रभाव नहीं होता।

    भावार्थ

    हम ज्ञान व कर्मरूप उत्तम पक्षोंवाले बनें। पालन व पूरणात्मक कर्मों में लगे हुए हम लोगों की विषैली बातों से ज्ञानविकल व मूढ़ न बनेंगे, अपितु उनके निन्दात्मक प्रलापों में अपनी कमियों का निरीक्षण करते हुए अपने को निर्दोष बनाने के लिए यत्नशील होंगे।

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    भाषार्थ

    (विष) हे विष! (सुपर्णः गुरुत्मान्) सुन्दर पंखोंवाले (गरुड़) ने (प्रथमम्) पहिले (त्वा) तुझे (आवयत्) खाया, (न अमीमदः) वह न मद१ से उन्मत्त हुआ, (न अरूरुपः) न मोहग्रस्त हुआ, (उत) अपितु (अस्मै) इसके लिए विष (पितुः) अन्नरूप (अभव:) हो गया।

    टिप्पणी

    [गरुड़ पक्षी पर विष का परीक्षण किया गया है। उसे विष खिलाया गया, परन्तु विष के कारण न तो वह मदोन्मत्त हुआ, न विमूढ़ हुआ, अपितु विष उसके लिए, अन्नसदृश बल का प्रदाता हो गया। वर्तमान में भी औषधों का प्रयोग चूहों आदि पर प्रथम किया जाता है, तत्पश्चात् वह व्यवहार-योग्य होता है। होम्योपैथी में कई प्रकार के सर्वविषों तथा अन्य विषयों का प्रयोग, उचित शक्ति में किया जाता है। पितुः, अन्ननाम (निघं० २।७)। अरुरूप:= रूप विमोहने (दिवादिः), विमोहनं=मूर्च्छा। आवयत्—आव्यति अतिकर्मा (निघं० २।८), तथा आ+वी (गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसन-"खादनेषु") (अदादि:)।] [१. अथवा "मदि स्वप्ने" (भ्वादिः) वह स्वप्नावस्था अर्थात् मूर्च्छावस्था में न हुआ।]

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    विषय

    विष चिकित्सा।

    भावार्थ

    (गरुत्मान्) पक्षी (सुपर्णः) सुपर्ण = गरुड़ (वा) तुझ को हे विष ! (प्रथमम्) सब से पूर्व (आवयत्) खा लेता है। हे विष ! (न अमीमदः) तू उसको नशा और मूर्छा भी उत्पन्न नहीं करता, (न अरूरूपः) और न उसकी चेतना का लोप करता है। (उत) बल्कि (अस्मै) इसके लिये (पितुः) अन्न ही (अभवः) हो जाता हैं। इसी प्रकार जो पुरुष प्रथम से विपको अपना अन्न का भाग बना लेते हैं उन पर बाद विष का असर नहीं होता, प्रत्युत विष ही उनका पोषक होजाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गरुत्मान् ऋषिः। तक्षको देवता। १-८ अनुष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Antidote to Poison

    Meaning

    O poison, the eagle of mighty beautiful wings eats you up. You neither intoxicate nor rack it, you just become usual food for it.

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    Translation

    O poison, first of all the mighty-winged eagle (the great Lord) has eaten you up. Now may you not make a person inflicted with you intoxicated and devoid of senses. On the other hand, may you become just like food to us.

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    Translation

    (a) The sun possessing rays first of all consumes the poison and neither this poison makes any effect on it nor this disturbs it but it becomes the feeding for it.(b) The strong-winged falcon first of all eats up the poison. This poison neither makes him giddy nor removes his consciousness. But it becomes food for him.

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    Translation

    The strong-winged bird, first of all, O poison, fed on thee! Thou didst not make him intoxicated or unconscious, aye, thou becamest food for him.

    Footnote

    Just as the bird, Garuda, through his capacity of digesting poison, eats the poisonous snake and builds up his body, so does a skilled physician remove poisonous diseases through medicine, and spread health in the world.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(सुपर्णः) आ० १।२४।१। सुपर्णाः सुपतना आदित्यरश्मयः, सुपर्णाः सुपतनानीन्द्रियाणि-निरु० ३।१२। शीघ्रगतिः। शोभनपक्षयुक्तः (त्वा) त्वां विषम् (गरुत्मान्) मृग्रोरुतिः। उ० १।९४। इति गॄ शब्दे-उति। गृणाति शब्दायते वायुवेगात् स गरुत् पक्षः। ततो मतुप्। उरगाशनः पक्षिविशेषः। गरुडः (विष) (प्रथमम्) प्रधानम्। अतिप्रभावयुक्तमित्यर्थः (आवयत्=आ अवयत्) वी गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु-लङ्। आवयतिः, अत्तिकर्मा-निघ० २।८। अभक्षयत् (न) निषेधे (अमीमदः) मदी हर्षग्लेपनयोः। ग्लेपनं दैन्यम्। ण्यन्तात् लुङि चङि रूपम्। मत्तं ज्ञानविकलम् अकार्षीः (अरूरुपः) रुप विमोहने ण्यन्तात् लुङि चङि रूपम्। विमूढम् अकार्षीः (उत) अपि तु (अस्मै) गरुत्मते (अभवः) लङ् (पितुः) कमिसनि०। उ० १।७१। इति पा रक्षणे, वा पा पाने, अथवा ओप्यायी वृद्धौ तु प्रत्ययः। धातोः पिभावः। पितुरित्यन्ननाम पातेर्वा पिबतेर्वा प्यायतेर्वा-निरु० ९।२४। अन्नम् ॥

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