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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 9

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 9/ मन्त्र 1
    सूक्त - भृगुः देवता - त्रैककुदाञ्जनम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - आञ्जन सूक्त

    एहि॑ जी॒वं त्राय॑माणं॒ पर्व॑तस्या॒स्यक्ष्य॑म्। विश्वे॑भिर्दे॒वैर्द॒त्तं प॑रि॒धिर्जीव॑नाय॒ कम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । इ॒हि॒ । जी॒वम् । त्राय॑माणम् । पर्व॑तस्य । अ॒सि॒ । अक्ष्य॑म् । विश्वे॑भि: । दे॒वै: । द॒त्तम् । प॒रि॒ऽधि: । जीव॑नाय । कम् ॥९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एहि जीवं त्रायमाणं पर्वतस्यास्यक्ष्यम्। विश्वेभिर्देवैर्दत्तं परिधिर्जीवनाय कम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । इहि । जीवम् । त्रायमाणम् । पर्वतस्य । असि । अक्ष्यम् । विश्वेभि: । देवै: । दत्तम् । परिऽधि: । जीवनाय । कम् ॥९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 9; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    अञ्जन के दृष्टान्त से ज्ञान का वर्णन करते हैं। जिस प्रकार अञ्जन (अस्य पर्वतस्य) इस पर्वत का विकार होकर (अक्ष्यम्) चक्षुओं के लिये हितकारक है और जीवन की रक्षा में सहायक है उसी प्रकार हे सर्व प्रकाशक सद्- विवेकरूप ज्ञानाञ्जन ! तू (जीवं त्रायमाणं) इस जीव के आत्मा की या प्राणियों की रक्षा करता हुआ (अस्य) इस (पर्वतस्य) परम पूर्ण, सब के परिपालक परमात्मा से प्राप्त होकर, जीव के लिये (अक्ष्यम् असि) इस अन्धकारमय संसार में चक्षु के लिये प्रकाश के समान हितकर है। और (विश्वेभिः) समस्त (देवैः) विद्वानों ने (दत्तं) तेरा जीवों के लिये उपदेश किया है और वस्तुतः (जीवनाय) जीवन भर के लिये (परिधिः) परकोट के समान प्राण-रक्षक है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भगुर्ऋषिः। त्रैककुदमञ्जनं देवता। १, ४-१० अनुष्टुभः। कुम्मती। ३ पथ्यापंक्तिः। दशर्चं सूक्तम्।

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