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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 2

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 2/ मन्त्र 6
    सूक्त - बृहद्दिवोऽथर्वा देवता - वरुणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - भुवनज्येष्ठ सूक्त

    नि तद्द॑धि॒षेऽव॑रे॒ परे॑ च॒ यस्मि॒न्नावि॒थाव॑सा दुरो॒णे। आ स्था॑पयत मा॒तरं॑ जिग॒त्नुमत॑ इन्वत॒ कर्व॑राणि॒ भूरि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि । तत् । द॒धि॒षे॒ । अव॑रे । परे॑ । च॒ । यस्मि॑न् । आवि॑थ । अव॑सा । दु॒रो॒णे । आ । स्था॒प॒य॒त॒ । मा॒तर॑म् । जि॒ग॒त्नुम् ।अत॑: । इ॒न्व॒त॒ । कर्व॑राणि । भूरि॑॥२.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नि तद्दधिषेऽवरे परे च यस्मिन्नाविथावसा दुरोणे। आ स्थापयत मातरं जिगत्नुमत इन्वत कर्वराणि भूरि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नि । तत् । दधिषे । अवरे । परे । च । यस्मिन् । आविथ । अवसा । दुरोणे । आ । स्थापयत । मातरम् । जिगत्नुम् ।अत: । इन्वत । कर्वराणि । भूरि॥२.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 6

    भावार्थ -
    हे इन्द्र ! परमात्मन् ! (अवरे परे च) छोटे और बड़े, निकृष्ट और उत्कृष्ट (यस्मिन् दुरोणे) जिस घर या देह में भी (तद्) तू उस ब्रह्म अर्थात् वेद-ज्ञान को (दधिषे) धारण करता है (अवसा आविथ) उस देह में तू हमारी रक्षा करता है। इसलिये हे पुरुषो ! तुम उस (जिगत्नुं) दिजयशील (मातरं) सबके निर्माता या ज्ञाता प्रभु को (आ स्थापयत) अपने में स्थापित करो। और (अतः) इसके सहारे ही (भूरि) बहुत से (कर्वराणि) विक्षेपक, चित डुलाने वाले कार्यों या विषय विघ्नों को (इन्वत) पार कर जाओ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - बृहद्दिव अथर्वा ऋषिः। वरुणो देवता। १-८ त्रिष्टुभः। ९ भुरिक् परातिजागता त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्॥

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