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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 21

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 21/ मन्त्र 3
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - वानस्पत्यो दुन्दुभिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुसेनात्रासन सूक्त

    वा॑नस्प॒त्यः संभृ॑त उ॒स्रिया॑भिर्वि॒श्वगो॑त्र्यः। प्र॑त्रा॒सम॒मित्रे॑भ्यो व॒दाज्ये॑ना॒भिघा॑रितः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वा॒न॒स्प॒त्य: । सम्ऽभृ॑त: । उ॒स्रिया॑भि: । वि॒श्वऽगो॑त्र्य: । प्र॒ऽत्रा॒सम् । अ॒मित्रे॑भ्य: । व॒द॒ । आज्ये॑न । अ॒भिऽघा॑रित: ॥२१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वानस्पत्यः संभृत उस्रियाभिर्विश्वगोत्र्यः। प्रत्रासममित्रेभ्यो वदाज्येनाभिघारितः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वानस्पत्य: । सम्ऽभृत: । उस्रियाभि: । विश्वऽगोत्र्य: । प्रऽत्रासम् । अमित्रेभ्य: । वद । आज्येन । अभिऽघारित: ॥२१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 21; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    हे दुन्दुभे ! नक्कारे ! तू जिस प्रकार (वानस्पत्यः) लकड़ी का बना हुआ होकर भी (उस्त्रियाभिः संभृतः) चाम के तस्मों से जकड़ा हुआ (विश्वगोत्र्यः) समस्त जन का बन्धु है। वह (अमित्रेभ्यः) शत्रुओं के लिये (आज्येन अभि- घारितः) घृत द्वारा अभिषिक्त होकर (प्र-त्रासं वद) भय और आतङ्क बतला। राजा के पक्ष में—हे राजन् ! तू (वानस्पत्यः) सूर्यवत् वा काष्ठ से उत्पन्न अग्नि के तुल्य एवं ऐश्वयों के स्वामि-पद के योग्य है। और (उस्त्रियाभिः सम्भृतः) किरणों के समान पुष्ट होकर अथवा (उत्सर्पणशील, उन्नतिशील प्रजाओं और सेनाओं से पुष्ट होकर ही (विश्वगोत्र्यः) समस्त गोत्रों और वंशों के प्रति एक समान है। तू (आज्येन अभिघारितः) तेज और शस्त्रों से प्रकाशमान होकर (अमित्रेभ्यः प्र-त्रासं वद) शत्रुओं को भय दिलाने वाला संदेश सुना।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। वानस्पत्यो दुन्दुभिर्देवता। आदित्यादिरूपेण देवप्रार्थना च। १, ४,५ पथ्यापंक्तिः। ६ जगती। ११ बृहतीगर्भा त्रिष्टुप्। १२ त्रिपदा यवमध्या गायत्री। २, ३, ७-१० अनुष्टुभः। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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