अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 21/ मन्त्र 10
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - वानस्पत्यो दुन्दुभिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुसेनात्रासन सूक्त
आदि॑त्य॒ चक्षु॒रा द॑त्स्व॒ मरी॑च॒योऽनु॑ धावत। प॑त्स॒ङ्गिनी॒रा स॑जन्तु॒ विग॑ते बाहुवी॒र्ये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआदि॑त्य । चक्षु॑: । आ । द॒त्स्व॒ । मरी॑चय: । अनु॑ । धा॒व॒त॒ । प॒त्ऽस॒ङ्गिनी॑: । आ । स॒ज॒न्तु॒ । विऽग॑ते । बा॒हु॒ऽवी॒र्ये᳡ ॥२१.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
आदित्य चक्षुरा दत्स्व मरीचयोऽनु धावत। पत्सङ्गिनीरा सजन्तु विगते बाहुवीर्ये ॥
स्वर रहित पद पाठआदित्य । चक्षु: । आ । दत्स्व । मरीचय: । अनु । धावत । पत्ऽसङ्गिनी: । आ । सजन्तु । विऽगते । बाहुऽवीर्ये ॥२१.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 21; मन्त्र » 10
विषय - युद्धविजयी राजा को उपदेश।
भावार्थ -
हे आदित्य ! सूर्य ! तू (चक्षुः आदत्स्व) शत्रुओं की चक्ष को हर ले और हे (मरीचयः) किरणो या सुभटो ! तुम शत्रुओं के (अनु वात) पीछे जाओ। और (बाहु-वीर्ये वि-गते) जब बाहु का बल टूट जाय तब (पत्-सङ्गिनीः) पैरों में पड़ने वाली रस्सियां, शत्रुओं के पैरों में (आ सजन्तु) लग जावे।
शत्रु की आंखों को सूर्य की किरणों से चकाचौंध करदे, और सूर्य की किरणों को या विद्युत् की धाराओं कों या किरणों के समान तीव्र गति वाले सुभटों को भागती सेना पर छोड़े, जब उनके बाहुबल टूट जायं तब उनके पैरों में बेड़ियां बांध कर उनकी मुष्कें कस ले।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। वानस्पत्यो दुन्दुभिर्देवता। आदित्यादिरूपेण देवप्रार्थना च। १, ४,५ पथ्यापंक्तिः। ६ जगती। ११ बृहतीगर्भा त्रिष्टुप्। १२ त्रिपदा यवमध्या गायत्री। २, ३, ७-१० अनुष्टुभः। द्वादशर्चं सूक्तम्॥
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