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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 21/ मन्त्र 10
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - वानस्पत्यो दुन्दुभिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुसेनात्रासन सूक्त
    49

    आदि॑त्य॒ चक्षु॒रा द॑त्स्व॒ मरी॑च॒योऽनु॑ धावत। प॑त्स॒ङ्गिनी॒रा स॑जन्तु॒ विग॑ते बाहुवी॒र्ये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आदि॑त्य । चक्षु॑: । आ । द॒त्स्व॒ । मरी॑चय: । अनु॑ । धा॒व॒त॒ । प॒त्ऽस॒ङ्गिनी॑: । आ । स॒ज॒न्तु॒ । विऽग॑ते । बा॒हु॒ऽवी॒र्ये᳡ ॥२१.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आदित्य चक्षुरा दत्स्व मरीचयोऽनु धावत। पत्सङ्गिनीरा सजन्तु विगते बाहुवीर्ये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आदित्य । चक्षु: । आ । दत्स्व । मरीचय: । अनु । धावत । पत्ऽसङ्गिनी: । आ । सजन्तु । विऽगते । बाहुऽवीर्ये ॥२१.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 21; मन्त्र » 10
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    हिन्दी (3)

    विषय

    शत्रुओं को जीतने को उपदेश।

    पदार्थ

    (आदित्य) हे सूर्यसमान सेनापति ! [शत्रुओं की] (चक्षुः) दृष्टि (आ दत्स्व) ले ले, (मरीचयः) हे किरणों के समान सेना दलो ! (अनु) पीछे-पीछे (धावत) दौड़ो। (बाहुवीर्ये) बाहु बल (विगते) चले जाने पर (पत्सङ्गिनीः) पाँव में पड़ी बेड़ियों को (आ सजन्तु) वे [शत्रु] लिपटा लेवें ॥१०॥

    भावार्थ

    पराक्रमी सेनापति शत्रुओं की दृष्टि बचा कर अपनी सेना के साथ धावा करके निर्बल शत्रुओं को बाँध लेवे ॥१०॥

    टिप्पणी

    १०−(आदित्य) अ० १।९।१। हे सूर्यसमान तेजस्विन् सेनापते (चक्षुः) शत्रूणां दृष्टिम् (आ दत्स्व) गृहाण। निवारय−इत्यर्थः (मरीचयः) अ० ४।३८।५। हे किरणतुल्याः सेनाजनाः (अनु) पश्चात् (धावत) वेगेन गच्छत (पत्सङ्गिनीः) पद्+षञ्ज−सङ्गे−घञ्, इनि, ङीप्। पादेषु सङ्गो बन्धो यासां ताः। पादशृङ्खलाः। निगडान् (आ सञ्जन्तु) आसक्ताः कुर्वन्तु शत्रवः (विगते) अपगते (बाहुवीर्ये) भुजबले ॥

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    विषय

    आदित्य-मरीचयः

    पदार्थ

    १. हे (आदित्य) = सूर्य! (चक्षुः आदत्स्व) = तू शत्रु को आँखों को छीन ले, उन्हें चुंधिया दे। (मरीचयः अनुधावत) = हे किरणो! तुम शत्रुओं का पीछा करो। 'आदित्य' सेनापति है-शत्रुओं के बल का आदान करनेवाला। 'मरीचयः' सैनिक हैं [नियते शत्रुतमः अस्मिन्] जिसके होने पर शत्रुओं का अन्धकार समास हो जाता है। २. (विगते बाहुवीर्ये) = जब शत्रुओं का बाहुबल टूट जाए तब (पत्संगिनी: आसजन्तु) = पैरों में पड़नेवाली रस्सियाँ शत्रुओं के पैरों मंं लग जाएँ।

    भावार्थ

    सेना के साथ सेनापति शत्रु का पीछे करे, शत्रु को थकाकर उन्हें बेड़ियाँ पहनाकर कारागृह में डाल दे।

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    भाषार्थ

    (आदित्य) हे आदित्य ! (चक्षुः आ दत्स्व) शत्रु के सैनिकों के चक्षुओं को छीन ले, (मरीचयः) हे रश्मियों ! (अनु) आदित्य की अनुकूलता में या उसके पीछे पीछे (धावत) दौड़ो। (परसंगिनी:) शत्रुओं के पैरों को सङ्गिन-साथिन [बेड़ियाँ] (आसजन्तु) इनके पैरों में आसक्त रहें, लगी रहें, (बाहुवीर्ये) इन शत्रु सेनाओं की बाहुओं की वीरता के (विमते) चले जाने पर, अर्थात् जब उनकी बाहुओं में लड़ने की शक्ति न रहे।

    टिप्पणी

    [चक्षुः आदत्स्व = आदित्य और उसकी रश्मियाँ तो चक्षु में दृष्टि प्रदान करती हैं, विना इन दो के चक्षु देख नहीं सकते, अतः अभिप्राय यह है कि आदित्य की रश्मियों को यान्त्रिक विधि से केन्द्रित करके, सेनिकों के चक्षुओं पर डाला जाए, ताकि उनमें देखने की शक्ति न रहे, जैसे टार्च के उग्र प्रकाश में चक्षु के चौंधिया जाने पर, उसमें तात्कालिक दृष्टि शक्ति क्षीण हो जाती है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    War and Victory-the call

    Meaning

    O Aditya, blazing commandar, dazzle the enemy’s eyes to blindness, rush on upon the enemy like lazer beams, and when the enemies have lost their strength of arms, let them be taken with bonds of fetters on the legs.

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    Translation

    O sun, may you take away their vision. Beams of light, may you run close after them. The power of arms having been subdued, may the foot-binding ropes be bound around.

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    Translation

    Let the sun take their eyesight away, let the rays of light, follow us in our favor and Jet the binding-fetters bind the feet of foe-men when they at loss of their arm-Strength.

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    Translation

    O Commander-in-chief blazing like the sun, take their sight away! O soldiers fast like rays, follow them close! When their strength of arms hath faded, let their feet be fastened with fetters.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १०−(आदित्य) अ० १।९।१। हे सूर्यसमान तेजस्विन् सेनापते (चक्षुः) शत्रूणां दृष्टिम् (आ दत्स्व) गृहाण। निवारय−इत्यर्थः (मरीचयः) अ० ४।३८।५। हे किरणतुल्याः सेनाजनाः (अनु) पश्चात् (धावत) वेगेन गच्छत (पत्सङ्गिनीः) पद्+षञ्ज−सङ्गे−घञ्, इनि, ङीप्। पादेषु सङ्गो बन्धो यासां ताः। पादशृङ्खलाः। निगडान् (आ सञ्जन्तु) आसक्ताः कुर्वन्तु शत्रवः (विगते) अपगते (बाहुवीर्ये) भुजबले ॥

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