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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 21

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 21/ मन्त्र 12
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - वानस्पत्यो दुन्दुभिः छन्दः - त्रिपदा यवमध्या गायत्री सूक्तम् - शत्रुसेनात्रासन सूक्त

    ए॒ता दे॑वसे॒नाः सूर्य॑केतवः॒ सचे॑तसः। अ॒मित्रा॑न्नो जयन्तु॒ स्वाहा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒ता:। दे॒व॒ऽसे॒ना: । सूर्य॑ऽकेतव: । सऽचे॑तस: । अ॒मित्रा॑न् । न: । ज॒य॒न्तु॒ । स्वाहा॑ ॥२१.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एता देवसेनाः सूर्यकेतवः सचेतसः। अमित्रान्नो जयन्तु स्वाहा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एता:। देवऽसेना: । सूर्यऽकेतव: । सऽचेतस: । अमित्रान् । न: । जयन्तु । स्वाहा ॥२१.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 21; मन्त्र » 12

    भावार्थ -
    (एताः) ये (देव सेनाः) विद्वान्, क्रीड़ा करने वाले वीर पुरुषों की सेनाएं (स-चेतसः) समान चित्त होकर युद्ध करने वाली (सूर्यकेतवः) सूर्य की ध्वजा वाली, अथवा सूर्य की किरणों के समान तीव्र गति वाली होकर (नः अमित्रान्) हमारे शत्रुओं को (जयन्तु) जीतें, (स्वाहा) यहि हमारी उत्तम यज्ञाहुति है। इति चतुर्थोऽनुवाकः॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। वानस्पत्यो दुन्दुभिर्देवता। आदित्यादिरूपेण देवप्रार्थना च। १, ४,५ पथ्यापंक्तिः। ६ जगती। ११ बृहतीगर्भा त्रिष्टुप्। १२ त्रिपदा यवमध्या गायत्री। २, ३, ७-१० अनुष्टुभः। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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