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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 21

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 21/ मन्त्र 2
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - वानस्पत्यो दुन्दुभिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुसेनात्रासन सूक्त

    उ॒द्वेप॑माना॒ मन॑सा॒ चक्षु॑षा॒ हृद॑येन च। धाव॑न्तु॒ बिभ्य॑तो॒ऽमित्राः॑ प्रत्रा॒सेनाज्ये॑ हु॒ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त्ऽवेष॑माना: । मन॑सा । चक्षु॑षा । हृद॑येन । च॒ । धाव॑न्तु । बिभ्य॑त: ।अ॒मित्रा॑: । प्र॒ऽत्रा॒सेन॑ । आज्ये॑ । हु॒ते ॥२१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उद्वेपमाना मनसा चक्षुषा हृदयेन च। धावन्तु बिभ्यतोऽमित्राः प्रत्रासेनाज्ये हुते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्ऽवेषमाना: । मनसा । चक्षुषा । हृदयेन । च । धावन्तु । बिभ्यत: ।अमित्रा: । प्रऽत्रासेन । आज्ये । हुते ॥२१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 21; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    (आज्ये हुते) अग्नि में घी की आहुति पड़ जाने पर अर्थात् युद्ध में परस्पर की द्वेषाग्नि में एक बार शस्त्र उठ जाने या धावा बोले जाने पर ही (अमित्राः) शत्रु लोग (प्र-त्रासेन) खूब डर के कारण (बिभ्यतः) भयभीत और (मनसा) मन से (चक्षुषा) आंखों से और (हृदयेन) हृदय से (उद्वेपमानाः) थर थर कांपते हुए (धावन्तु) रण से भाग जाय।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। वानस्पत्यो दुन्दुभिर्देवता। आदित्यादिरूपेण देवप्रार्थना च। १, ४,५ पथ्यापंक्तिः। ६ जगती। ११ बृहतीगर्भा त्रिष्टुप्। १२ त्रिपदा यवमध्या गायत्री। २, ३, ७-१० अनुष्टुभः। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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