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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 29

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 29/ मन्त्र 2
    सूक्त - चातनः देवता - जातवेदाः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - रक्षोघ्न सूक्त

    तथा॒ तद॑ग्ने कृणु जातवेदो॒ विश्वे॑भिर्दे॒वैः स॒ह सं॑विदा॒नः। यो नो॑ दि॒देव॑ यत॒मो ज॒घास॒ यथा॒ सो अ॒स्य प॑रि॒धिष्पता॑ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तथा॑ । तत् । अ॒ग्ने॒ । कृ॒णु॒ । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । विश्वे॑भि: । दे॒वै: । स॒ह । स॒म्ऽवि॒दा॒न: । य: । न॒: । दि॒देव॑ । य॒त॒म: । ज॒घास॑ । यथा॑ । स: । अ॒स्य । प॒रि॒ऽधि: । पता॑ति ॥२९.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तथा तदग्ने कृणु जातवेदो विश्वेभिर्देवैः सह संविदानः। यो नो दिदेव यतमो जघास यथा सो अस्य परिधिष्पताति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तथा । तत् । अग्ने । कृणु । जातऽवेद: । विश्वेभि: । देवै: । सह । सम्ऽविदान: । य: । न: । दिदेव । यतम: । जघास । यथा । स: । अस्य । परिऽधि: । पताति ॥२९.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 29; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    अग्नि का दूसरा कार्य बतलाते हैं। हे (जात-वेदः) सर्व पदार्थों के ज्ञाता (अग्ने) प्रकाशक अग्ने ! विद्वन् ! (विश्वेभिः देवैः सह) समस्त प्रकाशक विद्वानों या विजेता, वीर, साहसी पुरुषों के साथ (सं-विदानः) सम्मति करके (तत्) उस २ विजय कार्य को (तथा) उस २ सुचारु रूप से कर (यथा) जिस प्रकार से (नः यः दिदेव) जो हमें पीड़ा देता है और (यतमः) जो कोई भी (जघास) हमें खा जाता है, हमारा माल मत्ता, बल वीर्य हर लेता है (सः अस्य) उसका वह (परिधिः) अहाता मोर्चाबन्दी, सीमा (पताति) टूट कर गिर पड़े। डाक्टर और डाक्टरों के साथ सहमति करके रोगों को दूर करे और वीर पुरुष वीरों के साथ सहमति करके शत्रु का दुर्ग तोड़ें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - चातन ऋषिः। जातवेदा मन्त्रोक्ताश्व देवताः। १२, ४, ६-११ त्रिष्टुमः। ३ त्रिपदा विराड नाम गायत्री। ५ पुरोतिजगती विराड्जगती। १२-१५ अनुष्टुप् (१२ भुरिक्। १४, चतुष्पदा पराबृहती ककुम्मती)। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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