अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 29/ मन्त्र 9
दिवा॑ मा॒ नक्तं॑ यत॒मो द॒दम्भ॑ क्र॒व्याद्या॑तू॒नां शय॑ने॒ शया॑नम्। तदा॒त्मना॑ प्र॒जया॑ पिशा॒चा वि या॑तयन्तामग॒दो॒यम॑स्तु ॥
स्वर सहित पद पाठदिवा॑ । मा॒ । नक्त॑म् । य॒त॒म: । द॒दम्भ॑ । क्र॒व्य॒ऽअत् । या॒तू॒नाम् । शय॑ने । शया॑नम् । तत् । आ॒त्मना॑ । प्र॒ऽजया॑ । पि॒शा॒चा: । वि । या॒त॒य॒न्ता॒म् । अ॒ग॒द: । अ॒यम् ।अ॒स्तु॒ ॥२९.९॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवा मा नक्तं यतमो ददम्भ क्रव्याद्यातूनां शयने शयानम्। तदात्मना प्रजया पिशाचा वि यातयन्तामगदोयमस्तु ॥
स्वर रहित पद पाठदिवा । मा । नक्तम् । यतम: । ददम्भ । क्रव्यऽअत् । यातूनाम् । शयने । शयानम् । तत् । आत्मना । प्रऽजया । पिशाचा: । वि । यातयन्ताम् । अगद: । अयम् ।अस्तु ॥२९.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 29; मन्त्र » 9
विषय - रोगों का नाश करके आरोग्य होने का उपाय।
भावार्थ -
(यातूनाम्) यातना देने वालों में से (यतमः) जो भी (क्रव्याद्) कच्चे मांस का आहारी मच्छर, मत्कुण आदि रोगकारी जन्तु (दिवा नक्तं) दिन और रात के समय में और (शयने) या सेज पर (शयानम्) सोते हुए (मा) मुझको (ददम्भ) पीड़ा देना चाहता है (तद्) वह (आत्मना) स्वयं और उसके सहचारी (पिशाचाः) मांसभोजी रोग कीट भी (वि यातयन्ताम्) नाना प्रकार से नष्ट किये जायं और (अयम् अगदः अस्तु) यह पुरुष नीरोग होकर रहे।
अथवा—सोमचिकित्सा (होमियोपैथी) का उपदेश करते हैं कि (यतमः क्रव्याद् ददम्भ) जो भी रोग-कीट या विषाणु रोगी को सताता है (तदात्मना) उसी के सम जाति के (प्रजया) प्रजा, अंश से वे (पिशाचाः) रोगकारी कीटाणु (वि यातयन्ताम्) विनाश को प्राप्त हों। और इस प्रकार (अयम् अगदः अस्तु) वह रोगी नीरोग होजाय।
इस पक्ष में अभिजातवेदाः=प्रबल टिंक्चर है जो विशेष शक्ति से युक्त है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - चातन ऋषिः। जातवेदा मन्त्रोक्ताश्व देवताः। १२, ४, ६-११ त्रिष्टुमः। ३ त्रिपदा विराड नाम गायत्री। ५ पुरोतिजगती विराड्जगती। १२-१५ अनुष्टुप् (१२ भुरिक्। १४, चतुष्पदा पराबृहती ककुम्मती)। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
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