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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 29/ मन्त्र 9
    ऋषिः - चातनः देवता - जातवेदाः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - रक्षोघ्न सूक्त
    45

    दिवा॑ मा॒ नक्तं॑ यत॒मो द॒दम्भ॑ क्र॒व्याद्या॑तू॒नां शय॑ने॒ शया॑नम्। तदा॒त्मना॑ प्र॒जया॑ पिशा॒चा वि या॑तयन्तामग॒दो॒यम॑स्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दिवा॑ । मा॒ । नक्त॑म् । य॒त॒म: । द॒दम्भ॑ । क्र॒व्य॒ऽअत् । या॒तू॒नाम् । शय॑ने । शया॑नम् । तत् । आ॒त्मना॑ । प्र॒ऽजया॑ । पि॒शा॒चा: । वि । या॒त॒य॒न्ता॒म् । अ॒ग॒द: । अ॒यम् ।अ॒स्तु॒ ॥२९.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिवा मा नक्तं यतमो ददम्भ क्रव्याद्यातूनां शयने शयानम्। तदात्मना प्रजया पिशाचा वि यातयन्तामगदोयमस्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दिवा । मा । नक्तम् । यतम: । ददम्भ । क्रव्यऽअत् । यातूनाम् । शयने । शयानम् । तत् । आत्मना । प्रऽजया । पिशाचा: । वि । यातयन्ताम् । अगद: । अयम् ।अस्तु ॥२९.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 29; मन्त्र » 9
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    शत्रुओं और रोगों के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (यतमः) जिस किसी (क्रव्यात्) मांसभक्षक ने (दिवा) दिन में वा (नक्तम्) रात में (यातूनाम्) यात्रियों के (शयने) शयन स्थान में (शयानम्) सोते हुए (मा) मुझ को (ददम्भ) ठगा है। (तत्) उससे (पिशाचाः) वे मांसभक्षक (आत्मना) अपने जीव और (प्रजया) प्रजा के साथ (वि) विविध प्रकार (यातयन्ताम्) पीड़ा पावें, और (अयम्) यह पुरुष (अगदः) नीरोग (अस्तु) होवे ॥९॥

    भावार्थ

    म० ६ देखो ॥

    टिप्पणी

    ९−(दिवा) दिने (नक्तम्) रात्रौ। अन्यद् यथा म० ८, ६ ॥

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    विषय

    क्षीरे, मन्थे अपां पाने, शयने

    पदार्थ

    १. (यतमः) = जो भी कोई रोगजन्तु (क्षीरे) = दूध में, (मन्थे) = मठे में, (अकृष्टपच्ये धान्ये) = बिना खेती किये उत्पन्न हुए अन्न में, तथा (य:) = जो (अशने) = भोजन में प्रविष्ट होकर (मा ददम्भ) = मुझे हिसित करता है। २. (यातूनाम्) = यातना देनेवालों में (यतमः क्रव्यात) = जो मांसभक्षक कृमि (अपां पाने) = जलों का पान करने में अथवा (शयने शयानं मा) = बिस्तर पर सोते हुए मुझे (ददम्भ) = हिंसित करता है, ३. (यातूनां यतमः) = पीड़ा देनेवालों में जो भी (क्रव्यात्) = मांसाहारी कृमि (दिवा नक्तम्) = दिन-रात के समय में (शयने शयानम्) = बिस्तर पर सोये हुए (मा ददम्भ) = मुझे हिंसित करता है, (तत्) = वह पिशाच (आत्मना प्रजया) = स्वयं और अपनी सन्ततिसहित विनष्ट हो जाए। (पिशाचा:) = सब रोगजन्तु (वियातयन्ताम्) = नाना प्रकार से पीड़ा को प्राप्त होकर शरीर को छोड़ जाएँ। (अयं अगदः अस्तु) = यह पुरुष नीरोग हो जाए।

    भावार्थ

    भोजन में, जलों में या दिन व रात में सोने के समय जो भी रोगकमि हमारी हिंसा का कारण बनता है, वह कृमि नष्ट हो जाए और हमारे शरीर नीरोग बनें।



     

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    भाषार्थ

    (यातूनाम्) यातना देनेवाले रोग-जीवाणुओं में ( यतमः) जिस किसी (क्रव्याद) कच्चा मांस खानेवाले रोग-जीवाणु ने ( शयने शयानम्) शय्या में सोते हुए, या (दिवानक्तम् ) दिन-रात में [ किसी समय ] (ददम्भ) मुझे हिसित किया है, रुग्ण किया है (तत्) तो वह क्रव्याद्, तथा अन्य (पिशाचा:) सब रोग-जीवाणु भी, (आत्मना) निज स्वरूप से, तथा ( प्रजया ) सन्तानों से (वियातयन्ताम्) वियुक्त कर दिये जाएँ, और ( अयम् ) यह रुग्ण (अगदः) रोगरहित (अस्तु) हो जाए। [राष्ट्राधिपति के सम्बन्ध में मन्त्रार्थ, पूर्ववत्। 'आमे' मन्त्र ६ से, 'अपां मा' मन्त्र तक में वर्णित खाने-पीने की वस्तुएँ जब रोग-जीवाणुओं द्वारा विषाक्त [Infected] हो जाती हैं तो इन वस्तुओं के सेवन से रोग-जीवाणु रुग्ण कर देते हैं।]

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    विषय

    रोगों का नाश करके आरोग्य होने का उपाय।

    भावार्थ

    (यातूनाम्) यातना देने वालों में से (यतमः) जो भी (क्रव्याद्) कच्चे मांस का आहारी मच्छर, मत्कुण आदि रोगकारी जन्तु (दिवा नक्तं) दिन और रात के समय में और (शयने) या सेज पर (शयानम्) सोते हुए (मा) मुझको (ददम्भ) पीड़ा देना चाहता है (तद्) वह (आत्मना) स्वयं और उसके सहचारी (पिशाचाः) मांसभोजी रोग कीट भी (वि यातयन्ताम्) नाना प्रकार से नष्ट किये जायं और (अयम् अगदः अस्तु) यह पुरुष नीरोग होकर रहे। अथवा—सोमचिकित्सा (होमियोपैथी) का उपदेश करते हैं कि (यतमः क्रव्याद् ददम्भ) जो भी रोग-कीट या विषाणु रोगी को सताता है (तदात्मना) उसी के सम जाति के (प्रजया) प्रजा, अंश से वे (पिशाचाः) रोगकारी कीटाणु (वि यातयन्ताम्) विनाश को प्राप्त हों। और इस प्रकार (अयम् अगदः अस्तु) वह रोगी नीरोग होजाय। इस पक्ष में अभिजातवेदाः=प्रबल टिंक्चर है जो विशेष शक्ति से युक्त है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    चातन ऋषिः। जातवेदा मन्त्रोक्ताश्व देवताः। १२, ४, ६-११ त्रिष्टुमः। ३ त्रिपदा विराड नाम गायत्री। ५ पुरोतिजगती विराड्जगती। १२-१५ अनुष्टुप् (१२ भुरिक्। १४, चतुष्पदा पराबृहती ककुम्मती)। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Destruction of Germs and Insects

    Meaning

    Of the life damagers whatever carnivorous insects or germs infect and damage me day or night sleeping in bed, let these be countered and destroyed, themselves and with their further growth, and let the perrson affected be restored to good health.

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    Translation

    Whosoever a flesh-eater injures me in the day or at night lying in the bed of severe pains, let those blood-suckers themselves along with their progeny be removed. May this person be free from disease.

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    Translation

    If any germ eating flesh inflict me harm at day time and a night time in the sleeping place of travelers, let these germs with their lives their, offspring’s be terrorized and let the man affected will be healthy.

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    Translation

    If some flesh consuming germ, 1like mosquito or flea hath injured mein day or night time while sleeping in the bed on the ground with travelers, let the germs with their lives and offspring be destroyed, so that this man befree from disease.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ९−(दिवा) दिने (नक्तम्) रात्रौ। अन्यद् यथा म० ८, ६ ॥

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