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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 29/ मन्त्र 2
    ऋषिः - चातनः देवता - जातवेदाः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - रक्षोघ्न सूक्त
    63

    तथा॒ तद॑ग्ने कृणु जातवेदो॒ विश्वे॑भिर्दे॒वैः स॒ह सं॑विदा॒नः। यो नो॑ दि॒देव॑ यत॒मो ज॒घास॒ यथा॒ सो अ॒स्य प॑रि॒धिष्पता॑ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तथा॑ । तत् । अ॒ग्ने॒ । कृ॒णु॒ । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । विश्वे॑भि: । दे॒वै: । स॒ह । स॒म्ऽवि॒दा॒न: । य: । न॒: । दि॒देव॑ । य॒त॒म: । ज॒घास॑ । यथा॑ । स: । अ॒स्य । प॒रि॒ऽधि: । पता॑ति ॥२९.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तथा तदग्ने कृणु जातवेदो विश्वेभिर्देवैः सह संविदानः। यो नो दिदेव यतमो जघास यथा सो अस्य परिधिष्पताति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तथा । तत् । अग्ने । कृणु । जातऽवेद: । विश्वेभि: । देवै: । सह । सम्ऽविदान: । य: । न: । दिदेव । यतम: । जघास । यथा । स: । अस्य । परिऽधि: । पताति ॥२९.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 29; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    शत्रुओं और रोगों के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (तत्) सो (जातवेदः) हे विद्या में प्रसिद्ध (अग्ने) विद्वान् पुरुष ! (विश्वेभिः) सब (देवैः सह) उत्तम गुणों के साथ (संविदानः) मिलता हुआ तू (तथा) वैसा (कृणु) कर। (यथा) जिस से (अस्य) उस [शत्रु] का (सः परिधिः) वह परकोटा (पताति) गिर पड़े, (यः) जिस [शत्रु] ने (नः) हमें (दिदेव) सताया है, अथवा (यतमः) जिस किसी ने (जघास) खाया है ॥२॥

    भावार्थ

    प्रजा के सतानेवाले शत्रुओं को राजा यथावत् दण्ड देवे ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(तथा) तेन प्रकारेण (तत्) तस्मात् (अग्ने) विद्वन् (कृणु) कुरु (जातवेदः) हे प्रसिद्धविद्य (विश्वेभिः) सर्वैः (देवैः) उत्तमगुणैः (सह) सहितः (संविदानः) संगच्छमानः (यः) शत्रुः (नः) अस्मान् (दिदेव) दिवु मर्दने−लिट्, चुरादिः। ममर्द (यतमः) यः कश्चित् (जघास) भक्षितवान् (यथा) येन प्रकारेण (सः) प्रसिद्धः (अस्य) शत्रोः (परिधिः) अ० ४।९।१। प्राकारः (पताति) लेटि रूपम्। अधो गच्छेत् ॥

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    विषय

    दिदेव, जघास

    पदार्थ

    १. हे (जातवेदः अग्ने) = सर्वज्ञ, अग्रणी प्रभो! (विश्वेभिः देवैः सह संविदान:) = 'माता-पिता, आचार्य व अतिथि' आदि सब देवों के साथ ऐकमत्यवाले हुए-हुए आप (तत् तथा कृणु) = उस बात को वैसा कीजिए कि (यथा) = जिससे (यः) = जो रोग (न:) = हमें (दिदेव) = पराजित करना चाहता है [दिव विजिगीषायाम्], (यतमः) = जो रोग (जघास) = हमें खा ही जाता है, (अस्य)-इस रोग की (सः परिधिः) = वह परिधि-घेरा (पताति) = गिर जाता है, नष्ट हो जाता है।

    भावार्थ

    'रोग हमें धेरै न रहें', यही व्यवस्था प्रभु को 'माता-पिता व आचार्य द्वारा करानी है।'

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    भाषार्थ

    (जातवेदः अग्ने) हे जातप्रज्ञ अग्नि ! (विश्वेभिः देवैः सह ) सब देवों सहित (संविदानः) ऐकमत्य को प्राप्त हुआ तू, (तत्) उस पिशाचहनन कर्म को (तथा) उस प्रकार का (कृणु) कर दे कि (यः) जिस पिशाच ने (नः) हमें (दिदेव) ज्वर आदि द्वारा परितप्त किया है, (यतमः) उन पिशाचों में से जिसने (जघास) हमारे मांस को खाया है, (यथा) जिस प्रकार कि (अस्य ) इस पिशाच का (परिधिः) रक्षा-का-घेरा (पताति) टूटकर गिर जाए।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में परमेश्वर संबोधित हुआ है। जातवेदाः अग्निः (मन्त्र १ वत्।) विश्वेदेवाः= सूर्य, वायु, यज्ञियाग्नि आदि। संविदानः= इन सबकी सहायता प्राप्त करके। दिदेव= लिट् लकार; दिव=द्युतिः, परिताप; [द्युत] दीप्तौ (स्वादिः) । परिधिः= परितः धीयते रक्षार्थमिति। नगर, किला, मकान, कवच, घेरा आदि परिधि हैं। मन्त्र में यह अभिप्राय है कि पिशाच मरता नहीं, जिस परिधि में भी यह सुरक्षित हुआ हुआ है उसे परमेश्वर तू गिरा दे, ताकि हम उसका हनन कर सकें।

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    विषय

    रोगों का नाश करके आरोग्य होने का उपाय।

    भावार्थ

    अग्नि का दूसरा कार्य बतलाते हैं। हे (जात-वेदः) सर्व पदार्थों के ज्ञाता (अग्ने) प्रकाशक अग्ने ! विद्वन् ! (विश्वेभिः देवैः सह) समस्त प्रकाशक विद्वानों या विजेता, वीर, साहसी पुरुषों के साथ (सं-विदानः) सम्मति करके (तत्) उस २ विजय कार्य को (तथा) उस २ सुचारु रूप से कर (यथा) जिस प्रकार से (नः यः दिदेव) जो हमें पीड़ा देता है और (यतमः) जो कोई भी (जघास) हमें खा जाता है, हमारा माल मत्ता, बल वीर्य हर लेता है (सः अस्य) उसका वह (परिधिः) अहाता मोर्चाबन्दी, सीमा (पताति) टूट कर गिर पड़े। डाक्टर और डाक्टरों के साथ सहमति करके रोगों को दूर करे और वीर पुरुष वीरों के साथ सहमति करके शत्रु का दुर्ग तोड़ें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    चातन ऋषिः। जातवेदा मन्त्रोक्ताश्व देवताः। १२, ४, ६-११ त्रिष्टुमः। ३ त्रिपदा विराड नाम गायत्री। ५ पुरोतिजगती विराड्जगती। १२-१५ अनुष्टुप् (१२ भुरिक्। १४, चतुष्पदा पराबृहती ककुम्मती)। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Destruction of Germs and Insects

    Meaning

    O Agni, Jataveda, since you know and meet all brilliant scholars and specialists and you know all the divine herbs and sanatives of the world, decide and do that what you would so that whatever ailment and disease vexes us and consumes our health is eliminated to the last bounds of its effect.

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    Translation

    O biological fire, knower of all the born organisms, accordant with all the bounties of Nature, may you manage it so, that whosoever consumes us, let its protective enclosure fall down.

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    Translation

    O learned man! you having full accordance with all the learned men work in such a way as the effective range of this disease which gives troubles to us and which consume us become narrow.

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    Translation

    O learned person, in consultation with other physicians, arrange in sucha way, that the fort of this disease may fall, which hath caused us pain, whichever hath consumed our flesh!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(तथा) तेन प्रकारेण (तत्) तस्मात् (अग्ने) विद्वन् (कृणु) कुरु (जातवेदः) हे प्रसिद्धविद्य (विश्वेभिः) सर्वैः (देवैः) उत्तमगुणैः (सह) सहितः (संविदानः) संगच्छमानः (यः) शत्रुः (नः) अस्मान् (दिदेव) दिवु मर्दने−लिट्, चुरादिः। ममर्द (यतमः) यः कश्चित् (जघास) भक्षितवान् (यथा) येन प्रकारेण (सः) प्रसिद्धः (अस्य) शत्रोः (परिधिः) अ० ४।९।१। प्राकारः (पताति) लेटि रूपम्। अधो गच्छेत् ॥

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