अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 29/ मन्त्र 14
ऋषिः - चातनः
देवता - जातवेदाः
छन्दः - चतुष्पदा पराबृहती ककुम्मत्यनुष्टुप्
सूक्तम् - रक्षोघ्न सूक्त
55
ए॒तास्ते॑ अग्ने स॒मिधः॑ पिशाच॒जम्भ॑नीः। तास्त्वं जु॑षस्व॒ प्रति॑ चैना गृहाण जातवेदः ॥
स्वर सहित पद पाठए॒ता: । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । स॒म्ऽइध॑: । पि॒शा॒च॒ऽजम्भ॑नी: । ता: । त्वम् । जु॒ष॒स्व॒ । प्रति॑ । च॒ । ए॒ना॒: । गृ॒हा॒ण॒ । जा॒त॒ऽवे॒द॒: ॥२९.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
एतास्ते अग्ने समिधः पिशाचजम्भनीः। तास्त्वं जुषस्व प्रति चैना गृहाण जातवेदः ॥
स्वर रहित पद पाठएता: । ते । अग्ने । सम्ऽइध: । पिशाचऽजम्भनी: । ता: । त्वम् । जुषस्व । प्रति । च । एना: । गृहाण । जातऽवेद: ॥२९.१४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
शत्रुओं और रोगों के नाश का उपदेश।
पदार्थ
(अग्ने) हे विद्वान् पुरुष ! (ते) तेरे (एताः) यह (समिधः) विद्यादि की प्रकाशक्रियायें (पिशाचजम्भनीः) मांसभक्षक [प्राणियों वा रोगों] की नाश करनेवाली हैं। (जातवेदः) हे विद्या में प्रसिद्ध ! (त्वम्) तू (ताः) उन से (जुषस्व) प्रसन्न हो, (च) और (एनाः) इनको (प्रति गृहाण) प्रतीति से अङ्गीकार कर ॥१४॥
भावार्थ
विद्वान् पुरुष विद्या द्वारा दुःखदायी प्राणी और रोगों का नाश करे और धर्मकार्य में सदा प्रवृत्त रहे ॥१४॥
टिप्पणी
१४−(एताः) प्रत्यक्षाः (ते) तव (अग्ने) विद्वन् (समिधः) विद्यादिप्रकाशक्रियाः (पिशाचजम्भनीः) मांसभक्षकानां प्राणिनां रोगाणां वा नाशयित्र्यः (ताः) समिधः (त्वम्) (जुषस्व) प्रीणीहि (प्रति) प्रतीत्य (च) (एनाः) समिधः (गृहाण) स्वीकुरु (जातवेदः) हे प्रसिद्धविद्य ॥
विषय
ज्ञानदीसि व पिशाचजम्भन
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = अग्नणी विद्वन्! (एता:) = ये (ते) = तेरी (समिधः) = ज्ञानदीसियाँ (पिशाचजम्भनी:) = पिशाचों का विनाश करनेवाली हैं, ज्ञानदीसियाँ राक्षसी वृत्तियों का विनाश करती हैं। २. हे (जातवेदः) = उत्पन्न ज्ञानवाले पुरुष (ता:) = उन ज्ञानदीसियों को (त्वम्) = तू जुषस्व प्रीतिपूर्वक सेवन कर (च) = और (एना:) = इन ज्ञानदीसियों को तु (प्रतिगृहाण) = प्रतिदिन ग्रहण करनेवाला हो।
भावार्थ
हम अपने ज्ञान को दीप्त करके पैशाचिको वृत्तियों को विनष्ट करें।
भाषार्थ
(अग्ने) हे यज्ञियाग्नि ! (एताः) ये (पिशाचजम्भनीः ) मांसभक्षक रोग-जीवाणुओं का विनाश करनेवाली ( समिध:) समिधाएँ (ते) तेरे लिए हैं, (ताः) उन्हें (त्वम्) तू (जुषस्व) सेवन कर, ( च ) और ( एना:) इन्हें (प्रतिगृहाण) स्वीकार कर, (जातवेदः) हे प्रत्येक उत्पन्न पदार्थ में विद्यमान [अग्नि !]।
टिप्पणी
[यज्ञियाग्नि की रोगनाशक समिधाएँ जोकि रोग-जीवाणुओं का विनाश कर सकें। प्रतिगृहाण=प्रतिग्रह स्वीकारे। मन्त्र में केवल रोगहारी समिधाओं का कथन किया है, प्रकरण रोग सम्बन्धी है]
विषय
रोगों का नाश करके आरोग्य होने का उपाय।
भावार्थ
हे (जातवेदः) हे अग्ने ! (एताः ते सम-इधः) ये तेरी उत्तम रीति से प्रकाश करने या चमकने वाली शक्तियां, ज्वालाएं ही (पिशाचजम्भनीः) मांसशोषक या मांस में फैलने वाले रोगाणुओं की नाशक हैं। (ताः) उनको (त्वं) तू (जुषस्व) अपने में धारण कर और (एनाः) इनको (प्रति गृहाण) अपने भीतर रख।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
चातन ऋषिः। जातवेदा मन्त्रोक्ताश्व देवताः। १२, ४, ६-११ त्रिष्टुमः। ३ त्रिपदा विराड नाम गायत्री। ५ पुरोतिजगती विराड्जगती। १२-१५ अनुष्टुप् (१२ भुरिक्। १४, चतुष्पदा पराबृहती ककुम्मती)। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Destruction of Germs and Insects
Meaning
Agni, holy fire, these are your divine fuel sticks which burn and destroy life threatening forces of pollution and disease. O Jataveda, pray accept these into the lighted fire, love these, be happy and beneficent to us for health and purity.
Translation
O biological fire, these are your fuel-sticks, killer of bloodsuckers. May you accept these and consume them, O knower of all.
Translation
O learned man! these sacred sticks of yours for the yajna are such that crush the germs eating flesh. O learned one you offer them in the fire of yajna and let the fire have them.
Translation
O learned person, these thy manifest performances of knowledge, are the annihilators of flesh-devouring diseases. Be pleased with them, and willingly accept them, 0 learned fellow!
Footnote
‘Them’ refers to performances.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१४−(एताः) प्रत्यक्षाः (ते) तव (अग्ने) विद्वन् (समिधः) विद्यादिप्रकाशक्रियाः (पिशाचजम्भनीः) मांसभक्षकानां प्राणिनां रोगाणां वा नाशयित्र्यः (ताः) समिधः (त्वम्) (जुषस्व) प्रीणीहि (प्रति) प्रतीत्य (च) (एनाः) समिधः (गृहाण) स्वीकुरु (जातवेदः) हे प्रसिद्धविद्य ॥
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