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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 30

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 30/ मन्त्र 12
    सूक्त - चातनः देवता - आयुः छन्दः - चतुष्पदा विराड्जगती सूक्तम् - दीर्घायुष्य सूक्त

    नमो॑ य॒माय॒ नमो॑ अस्तु मृ॒त्यवे॒ नमः॑ पि॒तृभ्य॑ उ॒त ये नय॑न्ति। उ॒त्पार॑णस्य॒ यो वेद॒ तम॒ग्निं पु॒रो द॑धे॒ऽस्मा अ॑रि॒ष्टता॑तये ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नम॑: । य॒माय॑ । नम॑: । अ॒स्तु॒ । मृ॒त्यवे॑ । नम॑: । पि॒तृऽभ्य॑: । उ॒त । ये । नय॑न्ति । उ॒त्ऽपार॑णस्य । य: ।वेद॑ । तम् । अ॒ग्निम् । पु॒र: । द॒धे॒ । अ॒स्मै । अ॒रि॒ष्टऽता॑तये ॥३०.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नमो यमाय नमो अस्तु मृत्यवे नमः पितृभ्य उत ये नयन्ति। उत्पारणस्य यो वेद तमग्निं पुरो दधेऽस्मा अरिष्टतातये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नम: । यमाय । नम: । अस्तु । मृत्यवे । नम: । पितृऽभ्य: । उत । ये । नयन्ति । उत्ऽपारणस्य । य: ।वेद । तम् । अग्निम् । पुर: । दधे । अस्मै । अरिष्टऽतातये ॥३०.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 30; मन्त्र » 12

    भावार्थ -
    (नमः यमाय) उस सर्व-नियन्ता को नमस्कार है, हम उसके आगे झुकते हैं। (मृत्यवे नमः अस्तु) और देह को आत्मा से पृथक् करने वाले उस कर्मफल दाता प्रभु को भी नमस्कार है, हम उसके भी भागे विनय से झुकते हैं। (उत) और (ये नयन्ति) जो हमें इस लोक में सत् जीवनपथ पर ले जाते हैं (पितृभ्यः नमः) उन पालक पिताओं-माता, पिता, गुरु, आचार्य, प्रभु इन पञ्च पितरों को भी नमस्कार है और जो (अस्मै) इस जीव के (अरिष्टतातये) कल्याण के लिये (उत्-पारणस्य) इस शरीर के त्याग के अनन्तर इसकी पालना, जीवन यात्रा के विषय में सब कुछ जानता है (तम् अग्निं) उस अग्नि अर्थात् तेजोमय परमेश्वर को भी मैं (पुरः दधे) सदा अपने आगे रखता हूं। उसका सदा साक्षात् प्रभुत्व मानता हूं। ‘उत्पारणज्ञ’ विद्वान् का वर्णन देखो अथर्व० ८। १। १०-१९। २। ९॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - आयुष्काम उन्मोचन ऋषिः। आयुर्देवता। १ पथ्यापंक्तिः। १-८, १०, ११, १३, १५, १६ अनुष्टुभः। ९ भुरिक्। १२ चतुष्पदा विराड् जगती। १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः। १७ त्र्यवसाना षट्पदा जगती। सप्तदशर्चं सूक्तम्॥

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