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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 30/ मन्त्र 12
    ऋषिः - चातनः देवता - आयुः छन्दः - चतुष्पदा विराड्जगती सूक्तम् - दीर्घायुष्य सूक्त
    74

    नमो॑ य॒माय॒ नमो॑ अस्तु मृ॒त्यवे॒ नमः॑ पि॒तृभ्य॑ उ॒त ये नय॑न्ति। उ॒त्पार॑णस्य॒ यो वेद॒ तम॒ग्निं पु॒रो द॑धे॒ऽस्मा अ॑रि॒ष्टता॑तये ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नम॑: । य॒माय॑ । नम॑: । अ॒स्तु॒ । मृ॒त्यवे॑ । नम॑: । पि॒तृऽभ्य॑: । उ॒त । ये । नय॑न्ति । उ॒त्ऽपार॑णस्य । य: ।वेद॑ । तम् । अ॒ग्निम् । पु॒र: । द॒धे॒ । अ॒स्मै । अ॒रि॒ष्टऽता॑तये ॥३०.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नमो यमाय नमो अस्तु मृत्यवे नमः पितृभ्य उत ये नयन्ति। उत्पारणस्य यो वेद तमग्निं पुरो दधेऽस्मा अरिष्टतातये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नम: । यमाय । नम: । अस्तु । मृत्यवे । नम: । पितृऽभ्य: । उत । ये । नयन्ति । उत्ऽपारणस्य । य: ।वेद । तम् । अग्निम् । पुर: । दधे । अस्मै । अरिष्टऽतातये ॥३०.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 30; मन्त्र » 12
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आत्मा के उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (यमाय) न्यायकारी परमात्मा को (मृत्यवे) मृत्यु नाश करने के लिये (नमः) (नमः) वारंवार नमस्कार (अस्तु) होवे, (उत) और (पितृभ्यः) उन रक्षक महापुरुषों को (नमः) नमस्कार हो (ये) जो [हमें] (नयन्ति) ले चलते हैं। (यः) जो परमेश्वर (उत्पारणस्य) पार लगाना (वेद) जानता है, (तम्) उस (अग्निम्) ज्ञानवान् परमेश्वर को (अस्मै) इस जीव के लिये (अरिष्टतातये) कल्याण करने को (पुरः) आगे (दधे) रखता हूँ [पूजता हूँ] ॥१२॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमात्मा की महिमा जानकर और विद्वान् परोपकारी महात्माओं का आदर करके सुखी रहें ॥१२॥

    टिप्पणी

    १२−(नमः) (नमः) वारंवारं सत्कारः (यमाय) न्यायकारिणे परमात्मने (अस्तु) (मृत्यवे) क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः। पा० २।३।१४। इत्यप्रयुज्यमानस्य धातोः कर्मणि चतुर्थी। मृत्युं नाशयितुम् (नमः) (पितृभ्यः) रक्षकेभ्यो महापुरुषेभ्यः (उत) अपि (ये) पितरः (नयन्ति) प्रेरयन्ति (उत्पारणस्य) पार कर्मसमाप्तौ−ल्युट्। उत्कर्षेण पारकरणस्य (यः) परमेश्वरः (वेद) वेत्तास्ति (तम्) (अग्निम्) ज्ञानवन्तं परमेश्वरम् (पुरः दधे) अग्रे धरामि। पूजयामि (अस्मै) पुरुषाय (अरिष्टतातये) अ० ३।५।५। क्षेमकरणाय ॥

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    विषय

    उत्पारण

    पदार्थ

    १. (यमाय) = उस सर्वनियन्ता प्रभु के लिए (नम:) = नमस्कार हो। (मृत्यवे) = पुराने शरीर को छुड़ाकर नया शरीर देनेवाले प्रभु के लिए (नमः अस्तु) = नमस्कार हो। (उत पितृभ्यः) = और उन पितरों के लिए (नमः) = नमस्कार हो (ये) = जो (नयन्ति) = हमें उन्नति-पथ पर ले-चलते हैं। २. (अस्मै अरिष्टतातये) = इस कल्याण-वृद्धि के लिए (तम् अग्निम्) = उस अग्रणी प्रभु को (पुरः दधे) = सदा अपने सामने रखता हूँ, (य:) = जो प्रभु (उत्पारणस्य वेद) = भव-सागर से पार लगाना जानते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु 'यम' हैं, 'मृत्यु' हैं, 'अग्रि' हैं। ये प्रभु हमें भव-सागर से पार ले-जाते हैं और हमारा कल्याण करते हैं, अतः हम उन्हें नमस्कार करते हैं। हम उन पितरों को भी नमस्कार करते हैं, जो हमें उन्नति-पथ पर ले-चलते हैं।

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    भाषार्थ

    (यमाय) नियन्ता परमेश्वर के लिए ( नम: ) नमस्कार (अस्तु ) हो, (मृत्यवे) मृत्यु नामवाले परमेश्वर के लिए ( नमः ) नमस्कार हो, ( उत पितृभ्यः) तथा माता-पिता आदि के लिए ( नमः ) नमस्कार हो , ( ये ) जोकि (उन्नयन्ति) उन्नति की ओर हमें ले-जाते हैं, हमारा नयन करते हैं । (य:) जो (उत्पारणस्य) कष्टों से उठाकर कष्ट-नद पार करने [ की बिधि ] को (वेद) जानता है, (तम् अग्निम् ) उस प्रकाशस्वरूप परमेश्वर को (पुरः दधे) अपने सामने मैं रखता हूँ, (अस्मै) इस (अरिष्टतातये) हिंसारहित मोक्ष का विस्तार करनेवाले परमेश्वर की प्राप्ति के लिए।

    टिप्पणी

    [यमाय= परमेश्वर को महायम अर्थात् महानियन्ता कहा है (अथर्व० १३।४(१)।५)। परमेश्वर मृत्यु है, कर्मानुसार जन्म मृत्यु का कारण है "स एव मृत्युः सोऽमृतं सोऽभ्वं स रक्षा" (अथर्व० १३।४(३)।४, या २५)। उत्पारणस्य= उत्+ पार [पार तीर कर्मसमाप्तं, चूरादिः] +अन (ल्युट् )। अग्नि:=परमेश्वर (यजु:० ३२।१) यथा 'तदेवाग्निरतदादित्यः'। उत्पारणस्य = अथवा जो रोगी को रोग-नद से पार करने की विधि को जानता है, इस रोगी की अहिंसा के लिए उसे नमकार हो।]

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    विषय

    आरोग्य और सुख की प्राप्ति का उपदेश।

    भावार्थ

    (नमः यमाय) उस सर्व-नियन्ता को नमस्कार है, हम उसके आगे झुकते हैं। (मृत्यवे नमः अस्तु) और देह को आत्मा से पृथक् करने वाले उस कर्मफल दाता प्रभु को भी नमस्कार है, हम उसके भी भागे विनय से झुकते हैं। (उत) और (ये नयन्ति) जो हमें इस लोक में सत् जीवनपथ पर ले जाते हैं (पितृभ्यः नमः) उन पालक पिताओं-माता, पिता, गुरु, आचार्य, प्रभु इन पञ्च पितरों को भी नमस्कार है और जो (अस्मै) इस जीव के (अरिष्टतातये) कल्याण के लिये (उत्-पारणस्य) इस शरीर के त्याग के अनन्तर इसकी पालना, जीवन यात्रा के विषय में सब कुछ जानता है (तम् अग्निं) उस अग्नि अर्थात् तेजोमय परमेश्वर को भी मैं (पुरः दधे) सदा अपने आगे रखता हूं। उसका सदा साक्षात् प्रभुत्व मानता हूं। ‘उत्पारणज्ञ’ विद्वान् का वर्णन देखो अथर्व० ८। १। १०-१९। २। ९॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आयुष्काम उन्मोचन ऋषिः। आयुर्देवता। १ पथ्यापंक्तिः। १-८, १०, ११, १३, १५, १६ अनुष्टुभः। ९ भुरिक्। १२ चतुष्पदा विराड् जगती। १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः। १७ त्र्यवसाना षट्पदा जगती। सप्तदशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    God Health and Full Age

    Meaning

    Homage to Yama, lord ordainer of life and death. Homage be to death which leads to life’s renewal. Homage to Pitr pranas which carry us on and forward. That Agni, lord supreme of life and light, who knows the mystery of life and death and the transcendence from life and death, we keep upfront in mind for our ultimate well being and salvation.

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    Translation

    Homage be to the ordainer Lord (Yama). Homage be to the elders also who guide. I have honoured first the adorable Lord, who knows how to get across, for safe preservation of this man.

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    Translation

    My homage to God who is the controller of the universe, - my homage to God who Separate us from our body in death, my homage to my elders, my homage to them who lead us in this world, I respect first for the preservation of this patient, the effulgence of knowledge who knows how to save him.

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    Translation

    Homage be paid to the Just God, to Him who frees us from the fear of death, from fathers who guide us. I always honor, for the welfare of thissoul, that God, who well knowest how to save it.

    Footnote

    Fathers: Father, mother, Acharya, i.e., preceptor. ‘It’ refers to the soul.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १२−(नमः) (नमः) वारंवारं सत्कारः (यमाय) न्यायकारिणे परमात्मने (अस्तु) (मृत्यवे) क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः। पा० २।३।१४। इत्यप्रयुज्यमानस्य धातोः कर्मणि चतुर्थी। मृत्युं नाशयितुम् (नमः) (पितृभ्यः) रक्षकेभ्यो महापुरुषेभ्यः (उत) अपि (ये) पितरः (नयन्ति) प्रेरयन्ति (उत्पारणस्य) पार कर्मसमाप्तौ−ल्युट्। उत्कर्षेण पारकरणस्य (यः) परमेश्वरः (वेद) वेत्तास्ति (तम्) (अग्निम्) ज्ञानवन्तं परमेश्वरम् (पुरः दधे) अग्रे धरामि। पूजयामि (अस्मै) पुरुषाय (अरिष्टतातये) अ० ३।५।५। क्षेमकरणाय ॥

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