Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 30 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 30/ मन्त्र 17
    ऋषिः - चातनः देवता - आयुः छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा जगती सूक्तम् - दीर्घायुष्य सूक्त
    121

    अ॒यं लो॒कः प्रि॒यत॑मो दे॒वाना॒मप॑राजितः। यस्मै॒ त्वमि॒ह मृ॒त्यवे॑ दि॒ष्टः पु॑रुष जज्ञि॒षे। स च॒ त्वानु॑ ह्वयामसि॒ मा पु॒रा ज॒रसो॑ मृथाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । लो॒क: । प्रि॒यऽत॑म: । दे॒वाना॑म् । अप॑राऽजित: । यस्मै॑ । त्वम् । इ॒ह । मृ॒त्यवे॑ । दि॒ष्ट: । पु॒रु॒ष॒ । ज॒ज्ञि॒षे । स: । च॒ । त्वा॒ । अनु॑ । ह्व॒या॒म॒सि॒ । मा । पु॒रा । ज॒रस॑: । मृ॒था॒: ॥३०.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं लोकः प्रियतमो देवानामपराजितः। यस्मै त्वमिह मृत्यवे दिष्टः पुरुष जज्ञिषे। स च त्वानु ह्वयामसि मा पुरा जरसो मृथाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । लोक: । प्रियऽतम: । देवानाम् । अपराऽजित: । यस्मै । त्वम् । इह । मृत्यवे । दिष्ट: । पुरुष । जज्ञिषे । स: । च । त्वा । अनु । ह्वयामसि । मा । पुरा । जरस: । मृथा: ॥३०.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 30; मन्त्र » 17
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    आत्मा के उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (अयम्) यह (लोकः) संसार, (देवानाम्) विद्वानों का (अपराजितः) न जीता हुआ, (प्रियतमः) अति प्रिय है। (यस्मै) जिस [लोक] के लिये (इह) यहाँ पर (मृत्यवे) मृत्यु नाश करने को (दिष्टः) ठहराया हुआ (त्वम्) तू, (पुरुष) हे पुरुष ! (जज्ञिषे) प्रकट हुआ है। (सः) वह [लोक] (च) और हम (त्वा) तुझको (अनु ह्वयामसि) बुला रहे हैं। (जरसः) बुढ़ापे से (पुरा) पहिले (मा मृथाः) मत मर ॥१७॥

    भावार्थ

    इस अनन्त संसार को विद्वान् सदा खोजते रहे हैं। मनुष्य आलस्य आदि छोड़ कर सदा परोपकार में लगा रहे, और स्वस्थ और सावधान रहकर पूर्ण आयु तक आनन्द भोगे ॥१७॥

    टिप्पणी

    १७−(अयम्) दृश्यमानः (लोकः) संसारः (प्रियतमः) अतिहितकरः (देवानाम्) विदुषाम् (अपराजितः) अनभिभूता। सर्वदैवान्वेषणीयः (यस्मै) लोकप्राप्तये (त्वम्) हे मनुष्य (इह) अस्मिन् जन्मनि (मृत्यवे) म० १२। मृत्युं नाशयितुम् (दिष्टः) आदिष्टः। नियतः (पुरुष) हे पुरुषार्थिन् (जज्ञिषे) प्रादुर्बभूविथ (सः) लोकः (च) वयं च (त्वा) पुरुषम् (अनु) अनुक्रमेण (ह्वयामसि) आह्वामः (मा) निषेधे (पुरा) अग्रे (जरसः) जरायाः (मृथाः) माङि लुङि अडभावः। प्राणान् त्यज ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अपराजित प्रियतम लोक

    पदार्थ

    १. (अयं लोक:) = यह शरीर (प्रियतमः) = अत्यन्त प्रिय है। यह (देवानाम्) = प्रकाशक इन्द्रियों का (अपराजितः) =  अपराजित लोक है। २. हे (पुरुष) = पुरुष! (यस्मै) = जिस कारण से (त्वम्) = तू (इह) = यहाँ इस संसार में (मृत्यवे दिष्टः) = मृत्यु के भाग्य में पड़ा हुआ ही जज्ञिषे उत्पन्न होता है (स: च) = वह जो तू है, उस (त्वा) = तुझे (अनु हयामसि) = फिर से चेताते हैं-पुकारते हैं कि (जरसः पुरः) = जरावस्था से पूर्व (मा मृथा:) = प्राणों को मत छोड़।

    भावार्थ

    यह शरीर इन्द्रियों का प्रियतम अपराजित लोक है। इसमें जीव मृत्यु के लिए दिष्ट हुआ-हुआ ही जन्म लेता है। उसे हम चेताते हैं कि 'पूर्ण वृद्धावस्था से पहले मरे नहीं'।

    विशेष

    प्राणापान की शक्ति से सम्पन्न यह पुरुष 'शुक्रः' कहलाता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (अयम् लोकः) यह लोक (देवानाम्) देवों का (प्रियतमः) अत्यन्त प्रिय है, (अपराजितः) और पराजित नहीं हुआ है। (पुरुष) हे पुरुष! (यस्मै मृत्यवे) जिस मृत्यु के लिए (दिष्टः त्वम्) निर्दिष्ट हुआ तू (इह) इस लोक में (जज्ञिषे) पैदा हुआ है, (सः) वह तू है; (स्वा) तुझे (अनु) तदनुसार (ह्वयामसि) हम इस लोक में रहने के लिए बुलाते हैं और कहते हैं कि (जरसः पुरा) जरावस्था से पूर्व (मा मृथाः) न तू मृत्यु को प्राप्त हो; न मर।

    टिप्पणी

    [अयम् लोकः=यह पृथिवीलोक दिव्यशकितियों को अत्यन्त प्रिय है, जिसकी कि रक्षा दिव्य शक्तियां कर रहे हैं। इसमें प्राणी पैदा होते रहते और मरते रहते हैं, परन्तु पृथिवीलोक यथापूर्व बना रहता है, पराजित नहीं हुआ, नष्ट नहीं हुआ। इस लोक में हे पुरुष ! तू जरावस्था से पूर्व न मर। देवानाम् = यथा "देवान् भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः। परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।" गीता ३।११ ।। भावयत=अनुकूलान् कुरुत। अनेन=अनुकूलेन कर्मणा। श्रेयः परम्= निःश्रेयसम्, मोक्षरूपम् अवाप्स्यथ=तुम प्राप्त होगे।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    शरीर-महिमा

    शब्दार्थ

    (अयम्) यह (अपराजित:) अपराजित, किसीसे न हराया जानेवाला (लोक:) शरीर (देवानाम्) विद्वानों का (प्रियतमः) अत्यन्त प्यारा है । (पुरुष) हे जीवात्मन् ! (यस्मै) क्योंकि (त्वम्) तू (मृत्यवे) मृत्यु के लिए (दिष्ट:) नियत हुआ (इह जज्ञिषे) इस संसार में उत्पन्न होता है (स: च त्वा) ऐसे मृत्यु के भाग में पड़े तुझको (अनु ह्वयामसि) हम चेतावनी देते है (मा पुरा जरसः मृथाः) तू वृद्धावस्था से पूर्व, बुढ़ापे से पूर्व मत मर ।

    भावार्थ

    वेद में मानव-शरीर की बड़ी महिमा है । यह अयोध्या नगरी है । इसीको ब्रह्मपुरी कहते हैं । इसे दिव्य-रथ भी कहा गया है । यह संसार-सागर से पार करनेवाली नौका है। इसी मानव-देह में मनुष्य अपने जीवन के परम-उद्देश्य मोक्ष को प्राप्त कर सकता है । अतः यह शरीर विद्वानों को अत्यन्त प्रिय है। संयोग का परिणाम वियोग है । जन्म के साथ मृत्यु अवश्यम्भावी है । जन्म से ही मृत्यु मनुष्य के साथ लगी हुई है । कोई कितना ही महान् हो, राजा हो या योगी, तपस्वी हो या संन्यासी, मृत्यु के मुख से बच नहीं सकता। यद्यपि मृत्यु निश्चित है परन्तु बुढ़ापे से पूर्व नहीं मरना चाहिए । प्रत्येक व्यक्ति को अपना आहार-विहार, आचार और विचार इस प्रकार के बनाने चाहिएँ जिससे वृद्धावस्था से पूर्व वह मृत्यु के मुख में न जाए।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    आरोग्य और सुख की प्राप्ति का उपदेश।

    भावार्थ

    (अयं) यह (अपरा-जितः) किसी से न हारने वाला, सदा बलवान् (प्रिय-तमः) अत्यन्त प्रिय, रुचिकर (देवानाम्) देवगण इन्द्रियों का (लोकः) शरीर है। हे पुरुष ! हे देहपुरी के वासी जीवात्मन् ! (यस्मै) जिसके कारण (त्वम्) तू (इह) इसमें रह कर (मृत्यवे दिष्टः) मृत्यु के भाग्य में पड़ा हुआ ही (जज्ञिषे) उत्पन्न होता है, अर्थात् शरीर त्यागने के लिये ही शरीर का ग्रहण करता है। इसलिये (सः च) वह तू इस देह से असंग है। (त्वा अनु-ह्वयामसि) हम विद्वान् मुक्तजन तुझको वार २ फिर २ चेताते हैं कि (जरसः पुरा) बुढ़ापे से पहले (मा मृथाः) प्राणों को मत छोड़।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आयुष्काम उन्मोचन ऋषिः। आयुर्देवता। १ पथ्यापंक्तिः। १-८, १०, ११, १३, १५, १६ अनुष्टुभः। ९ भुरिक्। १२ चतुष्पदा विराड् जगती। १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः। १७ त्र्यवसाना षट्पदा जगती। सप्तदशर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    God Health and Full Age

    Meaning

    This human world unsurpassed by any other is dearest of the divines, dedicated to which and destined to die, O man, you are born here. You of that destiny and privilege, we call on to come and we pronounce: You must not die before you have had a full span of life unto perfect old age of ripeness.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    This world, the unconquered one, is dearest to the enlightened ones. O man, from the sure death, destined for which you were born here, we call you back. May you not die before reaching old age (purà jarasah).

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    This living world unconquered (by calamity and diseases) is most beloved of learned men. It is that one in which you are destined for death and are destined to be born again. We call you and say that you let not die before old age.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    This unconquerable world is most beloved of all learned persons. To whatsoever death thou wast destined when thou wast born, O man, This deathand we call after thee, Do not die before extreme age'!

    Footnote

    Life is sweet, one must not die before time.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १७−(अयम्) दृश्यमानः (लोकः) संसारः (प्रियतमः) अतिहितकरः (देवानाम्) विदुषाम् (अपराजितः) अनभिभूता। सर्वदैवान्वेषणीयः (यस्मै) लोकप्राप्तये (त्वम्) हे मनुष्य (इह) अस्मिन् जन्मनि (मृत्यवे) म० १२। मृत्युं नाशयितुम् (दिष्टः) आदिष्टः। नियतः (पुरुष) हे पुरुषार्थिन् (जज्ञिषे) प्रादुर्बभूविथ (सः) लोकः (च) वयं च (त्वा) पुरुषम् (अनु) अनुक्रमेण (ह्वयामसि) आह्वामः (मा) निषेधे (पुरा) अग्रे (जरसः) जरायाः (मृथाः) माङि लुङि अडभावः। प्राणान् त्यज ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top