अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 30/ मन्त्र 11
अ॒यम॒ग्निरु॑प॒सद्य॑ इ॒ह सूर्य॒ उदे॑तु ते। उ॒देहि॑ मृ॒त्योर्ग॑म्भी॒रात्कृ॒ष्णाच्चि॒त्तम॑स॒स्परि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । अ॒ग्नि: । उ॒प॒ऽसद्य॑: । इ॒ह । सूर्य॑: । उत् । ए॒तु॒ । ते॒ । उ॒त्ऽएहि॑ । मृ॒त्यो: । ग॒म्भी॒रात् । कृ॒ष्णात् । चि॒त् । तम॑स: । परि॑ ॥३०.११॥
स्वर रहित मन्त्र
अयमग्निरुपसद्य इह सूर्य उदेतु ते। उदेहि मृत्योर्गम्भीरात्कृष्णाच्चित्तमसस्परि ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । अग्नि: । उपऽसद्य: । इह । सूर्य: । उत् । एतु । ते । उत्ऽएहि । मृत्यो: । गम्भीरात् । कृष्णात् । चित् । तमस: । परि ॥३०.११॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आत्मा के उन्नति का उपदेश।
पदार्थ
(अयम्) यह (अग्निः) सर्वव्यापक परमेश्वर (उपसद्यः) सेवा योग्य है। (इह) इस में (ते) तेरे लिये (सूर्यः) सूर्य (उदेतु) उदय होवे। (गम्भीरात्) गहरे (मृत्योः) मृत्यु से (चित्) और (कृष्णात्) काले (तमसः) अन्धकार से (परि) अलग होकर (उदेहि) तू ऊपर आ ॥११॥
भावार्थ
मनुष्य परमात्मा की आज्ञा मानकर और आलस्यरूपी मृत्यु और अज्ञानरूपी अन्धकार मिटा कर उन्नति का सूर्य चमकावे ॥११॥
टिप्पणी
११−(अयम्) प्रत्यक्षः (अग्निः) सर्वव्यापकः परमेश्वरः (उपसद्यः) सेवनीयः (इह) अत्र। ईश्वरोपासनायाम् (सूर्यः) उन्नतिरूपः सूर्यः (उदेतु) उद्गच्छतु (ते) तुभ्यम् (उदेहि) उदागच्छ (मृत्योः) मरणात्। आलस्यात् (गम्भीरात्) अ० ४।२६।३। गहनात् (कृष्णात्) कालवर्णात् (चित्) अपि (तमसः) अन्धकारात्। अज्ञानात् (परि) पृथग् भूत्वा ॥
विषय
अनि: उपसद्यः
पदार्थ
१. (अयम् अग्नि:) = यह अग्रणी प्रभु (उपसद्य:) = उपासना के योग्य है। (इह) = यहाँ-उपासना में ही (सूर्यः ते उदेतु) = सूर्य तेरे लिए उदित हो, अर्थात् सूर्योदय से पूर्व ही उठकर तू उपासना में प्रवृत्त होनेवाला बन । २. तू (गम्भीरात् मृत्योः उत् ऐहि) = भयावह मृत्यु से ऊपर उठ तथा (कृष्णात् तमसः चित् परि) = [उदेहि] काले अन्धकार से भी तू ऊपर उठनेवाला बन-अविद्यान्धकार को छोड़कर ऊपर उठ।
भावार्थ
हम सूर्योदय से पूर्व ही उपासना में प्रवृत्त हों। भयावह मृत्यु से तथा अविद्या अन्धकार से हम ऊपर उठे।
भाषार्थ
(अयम् अग्निः) यह यज्ञियाग्नि (उपसद्यः) समीप बैठने योग्य अर्थात् सेवनीय है, (इह ते ) तेरे इस घर में (सूर्यः उदेतु) सूर्य उदित हो, अर्थात् उदीयमान सूर्य की रश्मियाँ आएँ। (गम्भीरात् मृत्योः) गम्भीर मृत्यु से (उदेति) तू उदित हो, (कृष्णात् चित् ) जैसे कि काले ( तमस: परि ) अन्धकार अर्थात् रात्री से सूर्य उदित होता है ।
टिप्पणी
[जैसे सूर्य काली-रात्रि के तमस से उदित होता है, वैसे तू मृत्यु रूपी काले तमस् से उदित हो । इसके लिए दो उपाय हैं, यज्ञियाग्नि का सेवन और उदीयमान सूर्य की रश्मियों का घर में प्रवेश तथा सेवन।]
विषय
आरोग्य और सुख की प्राप्ति का उपदेश।
भावार्थ
(अयम् अग्निः) यह अग्नि, आत्मा (उप-सद्यः) प्राप्त करने या ज्ञान करने-उपासना करने योग्य है। (इह) इसमें (ते) तेरा (सूर्यः) सब इन्द्रियों का प्रेरक मुख्य प्राण (उद्-एतु) उदित हो। (गम्भीरात्) गम्भीर भयावह (कृष्णात्) काले (तमसः चित्) अन्धकार के समान घोर (मृत्योः) मृत्यु, देह और आत्मा के विच्छेद के भय से भी (परि उद्-एहि) परे, ऊंचा चला जा।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
आयुष्काम उन्मोचन ऋषिः। आयुर्देवता। १ पथ्यापंक्तिः। १-८, १०, ११, १३, १५, १६ अनुष्टुभः। ९ भुरिक्। १२ चतुष्पदा विराड् जगती। १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः। १७ त्र्यवसाना षट्पदा जगती। सप्तदशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
God Health and Full Age
Meaning
This life energy is worthy of reverence. By virtue of this, your life’s spirit arises in the body. O Jiva, soul of life, rise beyond the deep cave of death and beyond the darkest of the dark and negation.
Translation
This sacrificial fire deserves sitting by (worship). Here may the sun rise for you. May you come up out of the deep black darkness of death.
Translation
This fire (working in the body) is nearest to you. let the sun rise for you, let you rise from death-the deep black darkness.
Translation
This All-pervading God is serviceable. In His contemplation, let thysoul, brilliant like the sun rise high. O soul, getting free from the fear ofdeep, dark, dismal death, rise thou up!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
११−(अयम्) प्रत्यक्षः (अग्निः) सर्वव्यापकः परमेश्वरः (उपसद्यः) सेवनीयः (इह) अत्र। ईश्वरोपासनायाम् (सूर्यः) उन्नतिरूपः सूर्यः (उदेतु) उद्गच्छतु (ते) तुभ्यम् (उदेहि) उदागच्छ (मृत्योः) मरणात्। आलस्यात् (गम्भीरात्) अ० ४।२६।३। गहनात् (कृष्णात्) कालवर्णात् (चित्) अपि (तमसः) अन्धकारात्। अज्ञानात् (परि) पृथग् भूत्वा ॥
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