अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 30/ मन्त्र 16
इ॒यम॒न्तर्व॑दति जि॒ह्वा ब॒द्धा प॑निष्प॒दा। त्वया॒ यक्ष्मं निर॑वोचं श॒तं रोपी॑श्च त॒क्मनः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒यम् । अ॒न्त: । व॒द॒ति॒ । जि॒ह्वा । ब॒ध्दा । प॒नि॒ष्प॒दा ।त्वया॑ । यक्ष्म॑म् । नि: । अ॒वो॒च॒म् । श॒तम् । रोपी॑: । च॒ । त॒क्मन॑: ॥३०.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
इयमन्तर्वदति जिह्वा बद्धा पनिष्पदा। त्वया यक्ष्मं निरवोचं शतं रोपीश्च तक्मनः ॥
स्वर रहित पद पाठइयम् । अन्त: । वदति । जिह्वा । बध्दा । पनिष्पदा ।त्वया । यक्ष्मम् । नि: । अवोचम् । शतम् । रोपी: । च । तक्मन: ॥३०.१६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आत्मा के उन्नति का उपदेश।
पदार्थ
(अन्तः) [मुख के] भीतर (बद्धा) बँधी हुई, (पनिष्पदा) थरथराकर चलती हुई (इयम्) यह (जिह्वा) जीभ (वदति) बोलती रहती है। (त्वया) तेरे साथ वर्त्तमान (यक्ष्मम्) राजरोग (च) और (तक्मनः) ज्वर की (शतम्) सौ (रोपीः) पीड़ाओं को (निः=निःसार्य) निकाल कर (अवोचम्) मैंने वचन कहा है ॥१६॥
भावार्थ
जिस प्रकार जीभ को मुख में दबाकर वेदमन्त्र आदि पवित्र वचन बोलते हैं, उसी प्रकार मनुष्य इन्द्रियों को वश में करके अपने सब मलों को धोकर स्वस्थचित्त होवे ॥१६॥
टिप्पणी
१६−(इयम्) प्रसिद्धा (अन्तः) मुखमध्ये (वदति) उच्चारयति (जिह्वा) रसना (बद्धा) संयता (पनिष्पदा) अप+निः+पदा। अलोपः। अपगत्य विकृत्य नितरां गतिमती (त्वया) त्वया सह वर्तमानम् (यक्ष्मम्) राजरोगम् (निः) निःसार्य (अवोचम्) उक्तवानस्मि (शतम्) बह्वीः (रोपीः) रुप विमोहने−इन्, ङीप्। विमोहनानि। यातनाः (च) (तक्मनः) ज्वरस्य ॥
विषय
यक्ष्मं शतं रोपीश्च तक्मनः
पदार्थ
१. (इयम्) = यह (जिह्वा) = जीभ (अन्तः बद्धा) = मुख में बद्ध हुई-हुई (पनिः पदा) = स्तुति करने में चतुर व व्यवहार में गतिवाली होकर (वदति) = व्यक्त वाणी का उच्चारण करती है। इस वाणी द्वारा ही स्तुति होती है और सब व्यापार चलते हैं। २. हे वाणि! (त्वया) = तेरे द्वार-तेरे बल से (यक्ष्मम्) = रोग को (च) = और (तक्मन:) = कष्टदायी ज्चर की (शतं रोपी:) = सैकड़ों पीड़ाओं को भी (निरवोचम्) = दूर कर देता हूँ-बाहर निकाल फेंकता हूँ।
भावार्थ
वाणी ही स्तवन आदि सब व्यवहारों को सिद्ध करती है। इसके द्वारा हम रोगों व रोगजनित पीड़ाओं को दूर करते हैं।
भाषार्थ
(अन्तः बद्धा) मुख के भीतर बंधी हुई (इयं जिह्वा) यह जीभ (पनिष्पदा) स्पन्दित हुई (वदति) बोलती है । (त्वया) हे रुग्ण ! तेरे साथ बँधी [ इस जिह्वा से] (यक्ष्मम्) यक्ष्मा रोग को (निर् अवोचम्) मैंने निज प्रबल वाणी द्वारा निकाल दिया है, (च) और ( तक्मनः) बखार की ( शतम्) सौ (रोपी:) पीड़ाओं को [भी निकाल दिया है।]
टिप्पणी
[मन्त्र में 'जिह्वा-सम्बन्धी-यक्ष्म' का वर्णन हुआ है। यक्ष्मा के कारण जिह्वा स्पन्दित हुई के सदृश बोलती है, स्पष्टोच्चारण नहीं कर सकती।]
विषय
आरोग्य और सुख की प्राप्ति का उपदेश।
भावार्थ
(इयम्) यह (जिह्वा) जीभ (अन्तः) मुख के भीतर (बद्धा) बंधी हुई। (पनिः- पदा) स्तुति करने और वाग्-व्यापार करने में चतुर, गतिशील होकर (वदति) व्यक्त वाणी का उच्चारण करती है। हे वाणि ! (त्वया) तेरे बल से (यक्ष्मं) यक्ष्म-रोग को और (तक्मनः) कष्टदायी ज्वर के (शतं रोपीः च) सैकड़ों पीड़ाओं को भी (निः अवोचम्) दूर कर देता हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
आयुष्काम उन्मोचन ऋषिः। आयुर्देवता। १ पथ्यापंक्तिः। १-८, १०, ११, १३, १५, १६ अनुष्टुभः। ९ भुरिक्। १२ चतुष्पदा विराड् जगती। १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः। १७ त्र्यवसाना षट्पदा जगती। सप्तदशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
God Health and Full Age
Meaning
This quivering tongue, bound within the mouth, now speaks. I drive out the cancerous consumption from your body and silence a hundred fever pains that torment you.
Translation
This tongue, utterer of words, even though tied down, speaks within. With my words I have driven the consumption and a hundred aches of fever out of you.
Translation
O patient! Here tremendously moving tongue tied in the mouth speaks I remove from your through your strength the consumption and hundred of pains caused by it.
Translation
Tied, tumultuously moving, this tongue speaks in the mouth. Ospeech, with thy strength, I drive away consumption and fever's hundredagonies!
Footnote
‘I’ refers to a physician, who instructs the patient as how to get rid of diseases.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१६−(इयम्) प्रसिद्धा (अन्तः) मुखमध्ये (वदति) उच्चारयति (जिह्वा) रसना (बद्धा) संयता (पनिष्पदा) अप+निः+पदा। अलोपः। अपगत्य विकृत्य नितरां गतिमती (त्वया) त्वया सह वर्तमानम् (यक्ष्मम्) राजरोगम् (निः) निःसार्य (अवोचम्) उक्तवानस्मि (शतम्) बह्वीः (रोपीः) रुप विमोहने−इन्, ङीप्। विमोहनानि। यातनाः (च) (तक्मनः) ज्वरस्य ॥
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