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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 30/ मन्त्र 2
    ऋषिः - चातनः देवता - आयुः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायुष्य सूक्त
    66

    यत्त्वा॑भिचे॒रुः पुरु॑षः॒ स्वो यदर॑णो॒ जनः॑। उ॑न्मोचनप्रमोच॒ने उ॒भे वा॒चा व॑दामि ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । त्वा॒ । अ॒भि॒ऽचे॒रु: । पुरु॑ष: । स्व: । यत् । अर॑ण: । जन॑: । उ॒न्मो॒च॒न॒प्र॒मो॒च॒ने इत्यु॑न्मोचनऽप्रमोच॒ने । उ॒भे इति॑ । वा॒चा । व॒दा॒मि॒ । ते॒ ॥३०.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्त्वाभिचेरुः पुरुषः स्वो यदरणो जनः। उन्मोचनप्रमोचने उभे वाचा वदामि ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । त्वा । अभिऽचेरु: । पुरुष: । स्व: । यत् । अरण: । जन: । उन्मोचनप्रमोचने इत्युन्मोचनऽप्रमोचने । उभे इति । वाचा । वदामि । ते ॥३०.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 30; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आत्मा के उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) चाहे (स्वः) अपनी ज्ञातिवाले (पुरुषः) पुरुष ने और (यत्) चाहे (अरणः) न बात करने योग्य, अबोध (जनः) जन ने (त्वा) तुझसे (अभिचेरुः) दुष्कर्म किया है। (उभे) दोनों (उन्मोचनप्रमोचने) अलग रहना और छुटकारा (ते) तुझको (वाचा) वेदवाणी से (वदामि) मैं बतलाता हूँ ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्य दुष्टों के फंदों से अलग रहे, और फँस जाने पर उपाय करके निकल आवे ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(यत्) यदा (त्वा) त्वाम् (अभिचेरुः) अभि+चर गतौ भक्षणे च−लिट्। अत एकहल्मध्येऽनादेशादेर्लिटि। पा० ६।४।१२०। इति एकारः। अभिचरितवन्तः। दुष्कृतवन्तः (पुरुषः) (स्वः) स्वकीयः (यत्) यदि वा (अरणः) अ० १।१९।३। अ+रण शब्दे−अप्। अरणीयः। असंभाष्यः। अबोधः (जनः) (उन्मोचनप्रमोचने) उन्मोचनं पृथक्त्वं प्रमोचनं विमोक्षं च (उभे) द्वे (वाचा) वेदवाण्या (वदामि) कथयामि (ते) तुभ्यम् ॥

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    विषय

    उन्मोचन-प्रमोचने

    पदार्थ

    १. (यत्) = यदि (स्वः पुरुषः) = अपना कोई सम्बन्धी पुरुष, (यत्) = यदि कोई (अरण: जन:) = [रण शब्दे] असम्भाष्य-हीन पुरुष (त्वा अभि चेरु:) = तुझपर अभिचार वा बुरा आक्रमण करता है तो मैं [आचार्य] (वाचा) = वाणी के द्वारा (उन्मोचनप्रमोचने) = जाल से छूटना व जाल से बचे ही रहना-(उभे) = दोनों का ते वदामि तुझे उपदेश करता हूँ। तू समझदार बनकर उन दुष्टों के जाल से छूट आ, उनके जाल में मत फैस। २. हे शिष्य ! (यत्) = जो (अचित्या) = नासमझी से अथवा असावधानी से तूने (स्त्रिय) = किसी स्त्रि के लिए (पंसे) = या पुरुष के लिए (दद्रोहिथ) = द्रोह किया है अथवा (शेपिषे) = बुरा वचन कहा है, तो मैं वाणी द्वारा तेरे लिए उन्मोचन व प्रमोचन को कहता हूँ। ३. (यत्) = यदि तू (मातकृतात् एनस:) = माता से किये गये पाप से (च) = और (यत्) = यदि (पितकृतात् एनस:) = पिता से किये गये पाप से (शेषे) = अज्ञान-निद्रा में सो रहा है तो मैं वाणी द्वारा तेरे लिए उन्मोचन और प्रमोचन दोनों को ही करता हूँ।

    भावार्थ

    आचार्यों से ज्ञान प्राप्त करके हम अपने और पराये मनुष्यों के षड्यन्त्रों का शिकार न बनें। किसी भी स्त्री व पुरुष के लिए अपशब्द न कहें। अज्ञाननिद्रा में ही न सोये रह जाएँ।

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    भाषार्थ

    (त्वा) तुझे लक्ष्य करके (स्वः पुरुषः) अपने पुरुष ने (यत्) जो, या (अरणः) पराये (जन:) जान ने (यत् ) जो (अभिचेरुः) अभिचारकर्म किया है, तो (उन्मोचनप्रमोचने) उससे उन्मुक्त और प्रमुक्त होना ( उभे) इन दोनों को (वाचा) वेदवाणी द्वारा (ते) तेरे लिए ( वदामि ) मैं कहता हूँ।

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    विषय

    आरोग्य और सुख की प्राप्ति का उपदेश।

    भावार्थ

    (यत्) यदि तेरा (स्वः पुरुषः) अपना कोई सम्बन्धी पुरुष या (यत्) यदि कोई (अरणः) बुरा (जनः) आदमी (अभिचेरुः) तुझ पर अपना अभिचार या बुरा आक्रमण, हानिकारक पाप-कार्य करना चाहता है तो मैं आचार्य हे शिष्य ! तुझको (वाचा) अपनी वाणी द्वारा उस जाल से छूटने के लिये (उन्मोचन-प्रमोचने) उन्मोचन और प्रमोचन (उभे) दोनों का (ते) तुझे, (वदामि उपदेश करता हूं। उन्मोचन = जाल से ऊपर निकल जाना और प्रमोचन = जाल से दूर ही रहना। अर्थात् फंस जाने पर छूटना और पहले ही न फंसना।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आयुष्काम उन्मोचन ऋषिः। आयुर्देवता। १ पथ्यापंक्तिः। १-८, १०, ११, १३, १५, १६ अनुष्टुभः। ९ भुरिक्। १२ चतुष्पदा विराड् जगती। १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः। १७ त्र्यवसाना षट्पदा जगती। सप्तदशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    God Health and Full Age

    Meaning

    If there be a person distant and wrong, or if there be a person, your own, who may do wrong, I speak to you about how to forestall the wrong or how to face it with confidence and overcome it.

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    Translation

    If any man, whether your kinsman or a stranger, has made some fatal application on you, for that I tell you ways of both release and deliverance in my words.

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    Translation

    If any man be stranger or akin inflict any injury on you I tell you by my advice the freedom and release from that.

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    Translation

    If any man, a stranger or akin, wants to do a sinful act unto thee, Iwith my voice to thee declare, how to get rid of his snare, and how to remainaway from it.

    Footnote

    Thee: The pupil. I: Preceptor, Acharya.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(यत्) यदा (त्वा) त्वाम् (अभिचेरुः) अभि+चर गतौ भक्षणे च−लिट्। अत एकहल्मध्येऽनादेशादेर्लिटि। पा० ६।४।१२०। इति एकारः। अभिचरितवन्तः। दुष्कृतवन्तः (पुरुषः) (स्वः) स्वकीयः (यत्) यदि वा (अरणः) अ० १।१९।३। अ+रण शब्दे−अप्। अरणीयः। असंभाष्यः। अबोधः (जनः) (उन्मोचनप्रमोचने) उन्मोचनं पृथक्त्वं प्रमोचनं विमोक्षं च (उभे) द्वे (वाचा) वेदवाण्या (वदामि) कथयामि (ते) तुभ्यम् ॥

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