अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 30/ मन्त्र 2
यत्त्वा॑भिचे॒रुः पुरु॑षः॒ स्वो यदर॑णो॒ जनः॑। उ॑न्मोचनप्रमोच॒ने उ॒भे वा॒चा व॑दामि ते ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । त्वा॒ । अ॒भि॒ऽचे॒रु: । पुरु॑ष: । स्व: । यत् । अर॑ण: । जन॑: । उ॒न्मो॒च॒न॒प्र॒मो॒च॒ने इत्यु॑न्मोचनऽप्रमोच॒ने । उ॒भे इति॑ । वा॒चा । व॒दा॒मि॒ । ते॒ ॥३०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्त्वाभिचेरुः पुरुषः स्वो यदरणो जनः। उन्मोचनप्रमोचने उभे वाचा वदामि ते ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । त्वा । अभिऽचेरु: । पुरुष: । स्व: । यत् । अरण: । जन: । उन्मोचनप्रमोचने इत्युन्मोचनऽप्रमोचने । उभे इति । वाचा । वदामि । ते ॥३०.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 30; मन्त्र » 2
विषय - आरोग्य और सुख की प्राप्ति का उपदेश।
भावार्थ -
(यत्) यदि तेरा (स्वः पुरुषः) अपना कोई सम्बन्धी पुरुष या (यत्) यदि कोई (अरणः) बुरा (जनः) आदमी (अभिचेरुः) तुझ पर अपना अभिचार या बुरा आक्रमण, हानिकारक पाप-कार्य करना चाहता है तो मैं आचार्य हे शिष्य ! तुझको (वाचा) अपनी वाणी द्वारा उस जाल से छूटने के लिये (उन्मोचन-प्रमोचने) उन्मोचन और प्रमोचन (उभे) दोनों का (ते) तुझे, (वदामि उपदेश करता हूं।
उन्मोचन = जाल से ऊपर निकल जाना और प्रमोचन = जाल से दूर ही रहना। अर्थात् फंस जाने पर छूटना और पहले ही न फंसना।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - आयुष्काम उन्मोचन ऋषिः। आयुर्देवता। १ पथ्यापंक्तिः। १-८, १०, ११, १३, १५, १६ अनुष्टुभः। ९ भुरिक्। १२ चतुष्पदा विराड् जगती। १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः। १७ त्र्यवसाना षट्पदा जगती। सप्तदशर्चं सूक्तम्॥
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