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अथर्ववेद > काण्ड 15 > सूक्त 11

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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 11/ मन्त्र 10
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - भुरिक् आर्ची बृहती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    यदे॑न॒माह॒व्रात्य॒ यथा॑ ते निका॒मस्तथा॒स्त्विति॑ निका॒ममे॒व तेनाव॑ रुन्द्धे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । ए॒न॒म् । आह॑ । व्रात्य॑ । यथा॑ । ते॒ । नि॒ऽका॒म: । तथा॑ । अ॒स्तु॒ । इति॑ । नि॒ऽका॒मम् । ए॒व । तेन॑ । अव॑ । रु॒न्ध्दे॒ ॥११.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदेनमाहव्रात्य यथा ते निकामस्तथास्त्विति निकाममेव तेनाव रुन्द्धे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । एनम् । आह । व्रात्य । यथा । ते । निऽकाम: । तथा । अस्तु । इति । निऽकामम् । एव । तेन । अव । रुन्ध्दे ॥११.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 11; मन्त्र » 10

    भावार्थ -
    (यद् एनम् आह) जो अतिथि को कहा जाता है कि हे (व्रात्य यथा ते निकामः) व्रात्य ! जो आपकी कामना है (तथा अस्तु) वैसा ही हो, वैसी आज्ञा कीजिये (इति तेन निकामम् एव अवरुन्धे) उससे वह अपने ही कामना योग्य सब पदार्थों को प्राप्त करता है। (यः एवं वेद) जो इस तत्व को जानता है (एनं निकामः आ गच्छति) उसको उसका कामनायोग्य पदार्थ प्राप्त होता है और (निकामस्य निकामे भवति) जिसको वह चाहता है वह भी उसके इच्छा के अधीन हो जाता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १ देवी पंक्तिः, २ द्विपदा पूर्वा त्रिष्टुप् अतिशक्करी, ३-६, ८, १०, त्रिपदा आर्ची बृहती (१० भुरिक्) ७, ९, द्विपदा प्राजापत्या बृहती, ११ द्विपदा आर्ची, अनुष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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