अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 5/ मन्त्र 3
सूक्त - रुद्र
देवता - द्विपदा प्राजापत्या अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
नास्य॑ प॒शून्न स॑मा॒नान्हि॑नस्ति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठन । अ॒स्य॒ । प॒शून् । न । स॒मा॒नम् । हि॒न॒स्ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
नास्य पशून्न समानान्हिनस्ति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठन । अस्य । पशून् । न । समानम् । हिनस्ति । य: । एवम् । वेद ॥५.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
विषय - व्रात्य प्रजापति का राज्यतन्त्र।
भावार्थ -
(यः एवम्) जो इसके इस रहस्य को (वेद) जानता है (एनम्) उसको (इष्वासः) धनुर्धर, (भवः) भव (प्राच्या दिशः अन्तः देशात्) प्राची दिशा के अन्तः देश से (अनुष्ठाता) उसका कर्मकर होकर (अनुतिष्ठति) उसकी आज्ञानुसार कार्य करता है। (न शर्वः) न शर्व, (न भवः) न भव और (न ईशानः) न इशान ही (एनं) उसको विनाश करता है और वे भव, शर्व, और ईशान (न अस्य पशून्) न इसके पशुओं को (न समानान्) और न इसके समान, बन्धुओं को ही (हिनस्ति) विनाश करता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - रुद्रगणसूक्तम्। मन्त्रोक्तो रुद्रो देवता। १ प्र० त्रिपदा समविषमा गायत्री, १ द्वि० त्रिपदा भुरिक् आर्ची त्रिष्टुप्, १-७ तृ० द्विपदा प्राजापत्यानुष्टुप्, २ प्र० त्रिपदा स्वराट् प्राजापत्या पंक्तिः, २-४ द्वि०, ६ त्रिपदा ब्राह्मी गायत्री, ३, ४, ६ प्र० त्रिपदा ककुभः, ५ ७ प्र० भुरिग् विषमागायत्र्यौ, ५ द्वि० निचृद् ब्राह्मी गायत्री, ७ द्वि० विराट्। षोडशर्चं पञ्चमं पर्यायसूक्तम्॥
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