अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 5/ मन्त्र 2
सूक्त - रुद्र
देवता - त्रिपदा भुरिक् आर्ची त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
भव॑ एनमिष्वा॒सःप्राच्या॑ दि॒शो अ॑न्तर्दे॒शाद॑नुष्ठा॒तानु॑ तिष्ठति नैनं॑ श॒र्वो नभ॒वो नेशा॑नः ॥
स्वर सहित पद पाठभ॒व: । ए॒न॒म् । इ॒षु॒ऽआ॒स: । प्राच्या॑: । दि॒श: । अ॒न्त॒:ऽदे॒शात् । अ॒नु॒ऽस्था॒ता । अनु॑ । ति॒ष्ठ॒ति॒ । न । ए॒न॒म् । श॒र्व: । न । भ॒व: । न । ईशा॑न: ॥५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
भव एनमिष्वासःप्राच्या दिशो अन्तर्देशादनुष्ठातानु तिष्ठति नैनं शर्वो नभवो नेशानः ॥
स्वर रहित पद पाठभव: । एनम् । इषुऽआस: । प्राच्या: । दिश: । अन्त:ऽदेशात् । अनुऽस्थाता । अनु । तिष्ठति । न । एनम् । शर्व: । न । भव: । न । ईशान: ॥५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
विषय - व्रात्य प्रजापति का राज्यतन्त्र।
भावार्थ -
(यः एवम्) जो इसके इस रहस्य को (वेद) जानता है (एनम्) उसको (इष्वासः) धनुर्धर, (भवः) भव (प्राच्या दिशः अन्तः देशात्) प्राची दिशा के अन्तः देश से (अनुष्टाता) उसका कर्मकर होकर (अनुतिष्ठति) उसकी आज्ञानुसार कार्य करता है। (न शवः) न शर्व, (न भवः) न भव और (न ईशानः) न इशान ही (एनं) उसको विनाश करता है और वे भव, शर्व, और ईशान (न अस्य पशून्) न(यः एवम्) जो इसके इस रहस्य को (वेद) जानता है (एनम्) उसको (इष्वासः) धनुर्धर, (भवः) भव (प्राच्या दिशः अन्तः देशात्) प्राची दिशा के अन्तः देश से (अनुष्ठाता) उसका कर्मकर होकर (अनुतिष्ठति) उसकी आज्ञानुसार कार्य करता है। (न शर्वः) न शर्व, (न भवः) न भव और (न ईशानः) न इशान ही (एनं) उसको विनाश करता है और वे भव, शर्व, और ईशान (न अस्य पशून्) न इसके पशुओं को (न समानान्) और न इसके समान, बन्धुओं को ही (हिनस्ति) विनाश करता है। इसके पशुओं को (न समानान्) और न इसके समान, बन्धुओं को ही (हिनस्ति) विनाश करता है।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - रुद्रगणसूक्तम्। मन्त्रोक्तो रुद्रो देवता। १ प्र० त्रिपदा समविषमा गायत्री, १ द्वि० त्रिपदा भुरिक् आर्ची त्रिष्टुप्, १-७ तृ० द्विपदा प्राजापत्यानुष्टुप्, २ प्र० त्रिपदा स्वराट् प्राजापत्या पंक्तिः, २-४ द्वि०, ६ त्रिपदा ब्राह्मी गायत्री, ३, ४, ६ प्र० त्रिपदा ककुभः, ५ ७ प्र० भुरिग् विषमागायत्र्यौ, ५ द्वि० निचृद् ब्राह्मी गायत्री, ७ द्वि० विराट्। षोडशर्चं पञ्चमं पर्यायसूक्तम्॥
इस भाष्य को एडिट करें