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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 6/ मन्त्र 7
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - आसुरी बृहती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    स उ॑त्त॒मांदिश॒मनु॒ व्यचलत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । उ॒त्ऽत॒माम् । दिश॑म् । अनु॑ । वि । अ॒च॒ल॒त् ॥६.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स उत्तमांदिशमनु व्यचलत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । उत्ऽतमाम् । दिशम् । अनु । वि । अचलत् ॥६.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 6; मन्त्र » 7

    भावार्थ -
    (सः उत्तमाम् दिशम् अनु-वि अचलत्) वह व्रात्य प्रजापति उत्तमा=सब से अधिक ऊंची दिशा की ओर चला (तम्) उसके पीछे पीछे (ऋचः च, सामानि च, यजूंषि च, ब्रह्म च अनु वि-अचलन्) ऋग्वेद के सन्त्र, साम गायन मन्त्र, यजुर्मन्त्र और बह्मवेद, अर्थात् अथर्ववेद के मन्त्र चले। (यः एवं वेद) जो व्रात्य के इस प्रकार के स्वरूप को साक्षात् करता है (ऋचां सः, साम्नां च, यजुषां च, ब्रह्मणः च, प्रियं धाम भवति) वह ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद के मंत्रों का प्रिय आश्रय होजाता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १ प्र०, २ प्र० आसुरी पंक्तिः, ३-६, ९ प्र० आसुरी बृहती, ८ प्र० परोष्णिक्, १ द्वि०, ६ द्वि० आर्ची पंक्तिः, ७ प्र० आर्ची उष्णिक्, २ द्वि०, ४ द्वि० साम्नी त्रिष्टुप्, ३ द्वि० साम्नी पंक्तिः, ५ द्वि०, ८ द्वि० आर्षी त्रिष्टुप्, ७ द्वि० साम्नी अनुष्टुप्, ६ द्वि० आर्ची अनुष्टुप्, १ तृ० आर्षी पंक्तिः, २ तृ०, ४ तृ० निचृद् बृहती, ३ तृ० प्राजापत्या त्रिष्टुप्, ५ तृ०, ६ तृ० विराड् जगती, ७ तृ० आर्ची बृहती, ९ तृ० विराड् बृहती। षड्विंशत्यृचं षष्ठं पर्यायसूक्तम्॥

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