अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 32/ मन्त्र 1
श॒तका॑ण्डो दुश्च्यव॒नः स॒हस्र॑पर्ण उत्ति॒रः। द॒र्भो य उ॒ग्र ओष॑धि॒स्तं ते॑ बध्ना॒म्यायु॑षे ॥
स्वर सहित पद पाठश॒तऽका॑ण्डः। दुः॒ऽच्य॒व॒नः। स॒हस्र॑ऽपर्णः। उ॒त्ऽति॒रः। द॒र्भः। यः। उ॒ग्रः। ओष॑धिः। तम्। ते॒। ब॒ध्ना॒मि॒। आयु॑षे ॥३२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
शतकाण्डो दुश्च्यवनः सहस्रपर्ण उत्तिरः। दर्भो य उग्र ओषधिस्तं ते बध्नाम्यायुषे ॥
स्वर रहित पद पाठशतऽकाण्डः। दुःऽच्यवनः। सहस्रऽपर्णः। उत्ऽतिरः। दर्भः। यः। उग्रः। ओषधिः। तम्। ते। बध्नामि। आयुषे ॥३२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 32; मन्त्र » 1
विषय - शत्रुदमनकारी ‘दर्भ’ नामक सेनापति।
भावार्थ -
(शतकाण्डः) जिस प्रकार दाभ बहुतसे काण्ड अर्थात् पोरुओं वाला होता है उसी प्रकार (शतकाण्डः) सैकड़ों काण्ड अर्थात् काम्य, अभिलाषा करने योग्य पदार्थों से सम्पन्न, अथवा सैकड़ों काण्ड अर्थात् वाणी से युक्त, (दुश्च्यवनः) संग्राम में शत्रु द्वारा न डिगाये जाने वाला, स्थापी, दुःसाध्य योद्धा, (सहस्रपर्णः) सहस्रों ‘पर्ण’ अर्थात् शीघ्रगामी बाणों या रथों वाला, (उत्तिरः) शत्रुओं को उखाड़ देने में समर्थ, (उग्रः) भयानक (ओषधिः) शत्रुओं के संतापकारी, पराक्रम को धारण करने वाला, (दर्भः) उनका हिंसक ‘दर्भ’ नामक सेनापति है हे राजन् ! (तम्) उसको (ते) तेरे (आयुषे) आयु, जीवन की रक्षा के लिये (बध्नामि) नियुक्त करता हूं। वेतनादि से उसे तेरे साथ बांधता हूं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सर्वकाम आयुष्कामोभृगु र्ऋषिः। मन्त्रोक्तो दर्भो देवता। ८ परस्ताद् बृहती। ९ त्रिष्टुप्। १० जगती। शेषा अनुष्टुभः। दशर्चं सूक्तम्।
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