अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 32/ मन्त्र 3
दि॒वि ते॒ तूल॑मोषधे पृथिव्यामसि॒ निष्ठि॑तः। त्वया॑ स॒हस्र॑काण्डे॒नायुः॒ प्र व॑र्धयामहे ॥
स्वर सहित पद पाठदि॒वि। ते॒। तूल॑म्। ओ॒ष॒धे॒। पृ॒थि॒व्याम्। अ॒सि॒। निऽस्थि॑तः। त्वया॑। स॒हस्र॑ऽकाण्डेन। आयुः॑। प्र। व॒र्ध॒या॒म॒हे॒ ॥३२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवि ते तूलमोषधे पृथिव्यामसि निष्ठितः। त्वया सहस्रकाण्डेनायुः प्र वर्धयामहे ॥
स्वर रहित पद पाठदिवि। ते। तूलम्। ओषधे। पृथिव्याम्। असि। निऽस्थितः। त्वया। सहस्रऽकाण्डेन। आयुः। प्र। वर्धयामहे ॥३२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 32; मन्त्र » 3
विषय - शत्रुदमनकारी ‘दर्भ’ नामक सेनापति।
भावार्थ -
हे (ओषधे) शत्रुओं को संतापदायक पुरुष ! (ते) तेरा (तूलम्) तूल, मुख्य बल (दिवि) आकाश में सूर्य के समान सभा में विद्यमान है। और तू स्वयं (पृथिव्याम्) पृथिवी में (निष्ठितः, असि) दृढ़ता से स्थित है। (सहस्रकाण्डेन त्वया) सहस्त्रों वाणों से युक्त तेरे द्वारा हम राष्ट्र के (आयुः) आयु, जीवन को (प्र वर्धयामहे) बढ़ाते हैं।
टिप्पणी -
(द्वि०) ‘निष्ठितः’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सर्वकाम आयुष्कामोभृगु र्ऋषिः। मन्त्रोक्तो दर्भो देवता। ८ परस्ताद् बृहती। ९ त्रिष्टुप्। १० जगती। शेषा अनुष्टुभः। दशर्चं सूक्तम्।
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