अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 32/ मन्त्र 4
ति॒स्रो दि॒वो अत्य॑तृणत्ति॒स्र इ॑माः पृथि॒वीरु॒त। त्वया॒हं दु॒र्हार्दो॑ जि॒ह्वां नि तृ॑णद्मि॒ वचां॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठति॒स्रः। दि॒वः। अति॑। अ॒तृ॒ण॒त्। ति॒स्रः। इ॒माः। पृ॒थि॒वीः। उ॒त। त्वया॑। अ॒हम्। दुः॒ऽहार्दः॑। जि॒ह्वाम्। नि। तृ॒ण॒द्मि॒। वचां॑सि ॥३२.४॥
स्वर रहित मन्त्र
तिस्रो दिवो अत्यतृणत्तिस्र इमाः पृथिवीरुत। त्वयाहं दुर्हार्दो जिह्वां नि तृणद्मि वचांसि ॥
स्वर रहित पद पाठतिस्रः। दिवः। अति। अतृणत्। तिस्रः। इमाः। पृथिवीः। उत। त्वया। अहम्। दुःऽहार्दः। जिह्वाम्। नि। तृणद्मि। वचांसि ॥३२.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 32; मन्त्र » 4
विषय - शत्रुदमनकारी ‘दर्भ’ नामक सेनापति।
भावार्थ -
शत्रुनाशकारी पुरुष (तिस्रः दिवः) तीनों द्यौलोक और (इमाः तिस्रः पृथिवीः) इन तीनों पृथिवियों को (अति अतृणत्) पारकर जाता है। (त्वया) तेरे बल से (अहम्) मैं राजा (दुर्हादः) दुष्ट हृदय वाले पुरुष के (जिह्वां) जीभ और (वचांसि) वचनों को (नि तृणद्मि) सर्वथा नाश करूं।
टिप्पणी -
(द्वि०) ‘तिस्रो द्यां पृथिवीरुत’, (च०) ‘नितृणद्मि वचांसि च’ इति पैप्प० सं०, क्वचित् च। (प्र०) ‘अत्यतृणः’। इति सायणाभिमतः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सर्वकाम आयुष्कामोभृगु र्ऋषिः। मन्त्रोक्तो दर्भो देवता। ८ परस्ताद् बृहती। ९ त्रिष्टुप्। १० जगती। शेषा अनुष्टुभः। दशर्चं सूक्तम्।
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