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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 32

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 32/ मन्त्र 2
    सूक्त - भृगुः देवता - दर्भः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दर्भ सूक्त

    नास्य॒ केशा॒न्प्र व॑पन्ति॒ नोर॑सि ताड॒मा घ्न॑ते। यस्मा॑ अच्छिन्नप॒र्णेन॑ द॒र्भेन॒ शर्म॒ यच्छ॑ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न। अ॒स्य॒। केशा॑न्। प्र। व॒प॒न्ति॒। न। उर॑सि। ताड॑म्। आ। घ्न॒ते॒। यस्मै॑। अ॒च्छि॒न्न॒ऽप॒र्णेन॑। द॒र्भेण॑। शर्म॑। य॒च्छ॒ति ॥३२.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नास्य केशान्प्र वपन्ति नोरसि ताडमा घ्नते। यस्मा अच्छिन्नपर्णेन दर्भेन शर्म यच्छति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न। अस्य। केशान्। प्र। वपन्ति। न। उरसि। ताडम्। आ। घ्नते। यस्मै। अच्छिन्नऽपर्णेन। दर्भेण। शर्म। यच्छति ॥३२.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 32; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    (अच्छिन्नपर्णेन) अविछिन्न, निरन्तर चलने वाले बाणों से युक्त, (दर्भेण) शत्रुहिंसक सेनापति द्वारा (यस्मा) जिसको (शर्म) सुख, शरण (यच्छति) प्रदान किया जाता है, (अस्य) उसके (केशान्) केशों को शत्रु लोग (न) कभी नहीं (प्र वपन्ति) काट सकते और शत्रु लोग उसके (उरसि) उसकी छाती पर भी (ताडम् न आघ्नते) प्रहार नहीं करते। अथवा, (अस्य) उसके सम्बन्धी लोग (केशान् न प्रवपन्ति) अपने बाल नहीं नोंचते और (न असिताडम् आघ्नते) न छाती पीट पीट कर दुहत्थड़ मार कर रोया करते हैं। अर्थात् वे सुखी रहते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सर्वकाम आयुष्कामोभृगु र्ऋषिः। मन्त्रोक्तो दर्भो देवता। ८ परस्ताद् बृहती। ९ त्रिष्टुप्। १० जगती। शेषा अनुष्टुभः। दशर्चं सूक्तम्।

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