अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 32/ मन्त्र 10
स॑पत्न॒हा श॒तका॑ण्डः॒ सह॑स्वा॒नोष॑धीनां प्रथ॒मः सं ब॑भूव। स नो॒ऽयं द॒र्भः परि॑ पातु वि॒श्वत॒स्तेन॑ साक्षीय॒ पृत॑नाः पृतन्य॒तः ॥
स्वर सहित पद पाठस॒प॒त्न॒ऽहा॒। श॒तऽका॑ण्डः। सह॑स्वान्। ओष॑धीनाम्। प्र॒थ॒मः। सम्। ब॒भू॒व॒। सः। नः॒। अ॒यम्। द॒र्भः। परि॑। पा॒तु॒। वि॒श्वतः॑। तेन॑। सा॒क्षी॒य॒। पृत॑नाः। पृ॒त॒न्य॒तः ॥३२.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
सपत्नहा शतकाण्डः सहस्वानोषधीनां प्रथमः सं बभूव। स नोऽयं दर्भः परि पातु विश्वतस्तेन साक्षीय पृतनाः पृतन्यतः ॥
स्वर रहित पद पाठसपत्नऽहा। शतऽकाण्डः। सहस्वान्। ओषधीनाम्। प्रथमः। सम्। बभूव। सः। नः। अयम्। दर्भः। परि। पातु। विश्वतः। तेन। साक्षीय। पृतनाः। पृतन्यतः ॥३२.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 32; मन्त्र » 10
विषय - शत्रुदमनकारी ‘दर्भ’ नामक सेनापति।
भावार्थ -
जो (सपत्नहा) एक ही देश पर समान रूप से अपना स्वामित्व चाहने वाले अन्य शत्रुओं का हनन करने वाला, (शतकाण्डः) सैकड़ों बाणों से युक्त, (सहस्वान्) शत्रुओं को पराजय करने में समर्थ होकर (ओषधीनाम्) शत्रु और दुष्टों को सन्ताप देने में (प्रथमः) सब से प्रथम, सर्वश्रेष्ठ (सं बभूव) है, (सः) वह (अयम् दर्भ:) यह ‘दर्भ’ नाम से विख्यात शत्रुनाशक पुरुष (नः) हमें (विश्वतः) सब ओर से और सब प्रकार से (परि पातु) रक्षा करे। (तेन) उसके बल से मैं (पृतन्यतः) सेना द्वारा आक्रमण करने वाले शत्रु की (पृतनाः) समस्त सेनाओं को (साक्षीय) विजय करने में समर्थ होऊं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सर्वकाम आयुष्कामोभृगु र्ऋषिः। मन्त्रोक्तो दर्भो देवता। ८ परस्ताद् बृहती। ९ त्रिष्टुप्। १० जगती। शेषा अनुष्टुभः। दशर्चं सूक्तम्।
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