अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 46/ मन्त्र 1
सूक्त - प्रजापतिः
देवता - अस्तृतमणिः
छन्दः - पञ्चपदा मध्येज्योतिष्मती त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अस्तृतमणि सूक्त
प्र॒जाप॑तिष्ट्वा बध्नात्प्रथ॒ममस्तृ॑तं वी॒र्याय॒ कम्। तत्ते॑ बध्ना॒म्यायु॑षे॒ वर्च॑स॒ ओज॑से च॒ बला॑य॒ चास्तृ॑तस्त्वा॒भि र॑क्षतु ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒जाऽप॑तिः। त्वा॒। ब॒ध्ना॒त्। प्र॒थ॒मम्। अस्तृ॑तम्। वी॒र्या᳡णि। कम्। तत्। ते॒। ब॒ध्ना॒मि॒। आयु॑षे। वर्च॑से। ओज॑से। च॒। बला॑य। च॒। अस्तृ॑तः। त्वा॒। अ॒भि। र॒क्ष॒तु॒ ॥४६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रजापतिष्ट्वा बध्नात्प्रथममस्तृतं वीर्याय कम्। तत्ते बध्नाम्यायुषे वर्चस ओजसे च बलाय चास्तृतस्त्वाभि रक्षतु ॥
स्वर रहित पद पाठप्रजाऽपतिः। त्वा। बध्नात्। प्रथमम्। अस्तृतम्। वीर्याणि। कम्। तत्। ते। बध्नामि। आयुषे। वर्चसे। ओजसे। च। बलाय। च। अस्तृतः। त्वा। अभि। रक्षतु ॥४६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 46; मन्त्र » 1
विषय - अस्तृन नाम वीर पुरुष की नियुक्ति।
भावार्थ -
हे वीर पुरुष ! (प्रजापतिः) प्रजा का पालक स्वामी (वीर्याय) वीर्य, वीर कर्म के लिये (प्रथमम्) सबसे प्रथम, सर्वश्रेष्ठ (अस्तृतम्) शत्रु से कभी न मारे जाने वाले (त्वा) तुझको (कम्) ही (बध्नात्) बांधता है। हे राजन् ! उस वीर पुरुष को मैं (ते) तेरी (आयुषे) आयु (वर्चसे) वर्चस् (ओजसे) ओज और (बलाय) बल के लिये (बध्नामि) तेरे अधीन नियुक्त करता हूं। वह (अस्तृतः) कभी न मरने वाला, अखण्ड पुरुष (त्वा अभि रक्षतु) तेरी रक्षा करे।
टिप्पणी -
(प्र०) ‘अवघ्नात्’ इति क्वचित्। (तृ०) ‘तं ते’ इति क्वचित्। (प्र० द्वि०) ‘वध्नातु प्रथमसम्भृतं’ (च० पं०) ‘वर्चसोजसे’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रजापतिर्ऋषिः। अस्तृतमणिर्देवता। १ पञ्चपदा मध्येज्योतिष्मती त्रिष्टुप्। २ षट्पदा भुरिक् शक्करी। ३, ७ पञ्चपदे पथ्यापंक्ती। १। ४ चतुष्पदा। ५ पञ्चपदा च अतिजगत्यौ। ६ पञ्चपदा उष्णिग्गर्भा विराड् जगती। सप्तर्चं सूक्तम्॥
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