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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 46

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 46/ मन्त्र 5
    सूक्त - प्रजापतिः देवता - अस्तृतमणिः छन्दः - पञ्चपदातिजगती सूक्तम् - अस्तृतमणि सूक्त

    अ॒स्मिन्म॒णावेक॑शतं वी॒र्याणि स॒हस्रं॑ प्रा॒णा अ॑स्मि॒न्नस्तृ॑ते। व्या॒घ्रः शत्रू॑न॒भि ति॑ष्ठ॒ सर्वा॒न्यस्त्वा॑ पृतन्या॒दध॑रः॒ सो अ॒स्त्वस्तृ॑तस्त्वा॒भि र॑क्षतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अस्मि॑न्। म॒णौ। एक॑ऽशतम्। वी॒र्या᳡णि। स॒हस्र॑म्। प्रा॒णाः। अ॒स्म‍ि॒न्। अस्तृ॑ते। व्या॒घ्रः। शत्रू॑न्। अ॒भि। ति॒ष्ठ॒। सर्वा॑न्। यः। त्वा॒। पृ॒त॒न्यात्। अध॑रः। सः। अ॒स्तु॒। अस्तृ॑तः। त्वा॒। अ॒भि। र॒क्ष॒तु॒ ॥४६.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्मिन्मणावेकशतं वीर्याणि सहस्रं प्राणा अस्मिन्नस्तृते। व्याघ्रः शत्रूनभि तिष्ठ सर्वान्यस्त्वा पृतन्यादधरः सो अस्त्वस्तृतस्त्वाभि रक्षतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्मिन्। मणौ। एकऽशतम्। वीर्याणि। सहस्रम्। प्राणाः। अस्म‍िन्। अस्तृते। व्याघ्रः। शत्रून्। अभि। तिष्ठ। सर्वान्। यः। त्वा। पृतन्यात्। अधरः। सः। अस्तु। अस्तृतः। त्वा। अभि। रक्षतु ॥४६.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 46; मन्त्र » 5

    भावार्थ -
    (अस्मिन् मणौ) इस मणि अर्थात् शिरोमणि एवं शत्रुओं को स्तम्भन करने में समर्थ पुरुष में (एकशतं वीर्याणि) एकसौ एक या सैकड़ों वीर्य, वीर कर्म करने के सामर्थ्य हैं। और (अस्मिन् अस्तृते) इस अखण्ड, वीर पुरुष में (सहस्रं प्राणाः) सहस्र प्राण हैं अर्थात् हज़ारों प्राणियों के जीवित रखने की सामर्थ्य है या हज़ारों प्राणियों के बराबर कार्य करने का बल है। हे राजन् या वीर पुरुष ! तू (व्याघ्रः) व्याघ्र के समान शूरवीर होकर (सर्वान् शत्रून्) समस्त शत्रूओं पर (अभितिष्ठ) आक्रमण कर और (यः) जो (त्वा) तुझपर (पृतन्यात्) सेना द्वारा आक्रमण करे (सः) वह ही (अधरः अस्तु) तेरे नीचे ना पड़े। ऐसे अवसर में (अस्तृतः स्वा अभि रक्षतु) ‘अस्तृत’ अखण्डनीय, वीर पुरुष तेरी रक्षा करे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रजापतिर्ऋषिः। अस्तृतमणिर्देवता। १ पञ्चपदा मध्येज्योतिष्मती त्रिष्टुप्। २ षट्पदा भुरिक् शक्करी। ३, ७ पञ्चपदे पथ्यापंक्ती। १। ४ चतुष्पदा। ५ पञ्चपदा च अतिजगत्यौ। ६ पञ्चपदा उष्णिग्गर्भा विराड् जगती। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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