अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 46/ मन्त्र 4
सूक्त - प्रजापतिः
देवता - अस्तृतमणिः
छन्दः - चतुष्पदा त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अस्तृतमणि सूक्त
इन्द्र॑स्य त्वा॒ वर्म॑णा॒ परि॑ धापयामो॒ यो दे॒वाना॑मधिरा॒जो ब॒भूव॑। पुन॑स्त्वा दे॒वाः प्र ण॑यन्तु॒ सर्वेऽस्तृ॑तस्त्वा॒भि र॑क्षतु ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑स्य। त्वा॒। वर्म॑णा। परि॑। धा॒प॒या॒मः॒। यः। दे॒वाना॑म्। अ॒धि॒ऽरा॒जः। ब॒भूव॑। पुनः॑। त्वा॒। दे॒वाः। प्र। न॒य॒न्तु॒। सर्वे॑। अस्तृ॑तः। त्वा॒। अ॒भि। र॒क्ष॒तु॒ ॥४६.४॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रस्य त्वा वर्मणा परि धापयामो यो देवानामधिराजो बभूव। पुनस्त्वा देवाः प्र णयन्तु सर्वेऽस्तृतस्त्वाभि रक्षतु ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रस्य। त्वा। वर्मणा। परि। धापयामः। यः। देवानाम्। अधिऽराजः। बभूव। पुनः। त्वा। देवाः। प्र। नयन्तु। सर्वे। अस्तृतः। त्वा। अभि। रक्षतु ॥४६.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 46; मन्त्र » 4
विषय - अस्तृन नाम वीर पुरुष की नियुक्ति।
भावार्थ -
हे वीर पुरुष ! (इन्द्रस्य) उस इन्द्र ऐश्वर्यवान् राजा (वर्मणा) रक्षाकारी कवच से (त्वा) तुझको (परि धापयामः) ढांपते हैं, (यः) जो (देवानाम्) देव, समस्त ज्ञानवान् विद्वानों, वीर विजयी राजाओं का भी (अधिराजः) अधिराज अर्थात् राजाधिराज (बभूव) है। (देवाः) वे समस्त विजिगीषु राजा लोग (सर्वे) (त्वा) तुझको (पुनः) फिर एक बार (प्रणयन्तु) अपना प्रमुख बनावें। हे राजन् ! (अस्तृतः त्वा अभि रक्षतु) अखण्डनीय वीर पुरुष तेरी रक्षा करे।
टिप्पणी -
(प्र०) ‘परिधामै’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रजापतिर्ऋषिः। अस्तृतमणिर्देवता। १ पञ्चपदा मध्येज्योतिष्मती त्रिष्टुप्। २ षट्पदा भुरिक् शक्करी। ३, ७ पञ्चपदे पथ्यापंक्ती। १। ४ चतुष्पदा। ५ पञ्चपदा च अतिजगत्यौ। ६ पञ्चपदा उष्णिग्गर्भा विराड् जगती। सप्तर्चं सूक्तम्॥
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