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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 11

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 11/ मन्त्र 4
    सूक्त - विश्वामित्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-११

    इन्द्रः॑ स्व॒र्षा ज॒नय॒न्नहा॑नि जि॒गायो॒शिग्भिः॒ पृत॑ना अभि॒ष्टिः। प्रारो॑चय॒न्मन॑वे के॒तुमह्ना॒मवि॑न्द॒ज्ज्योति॑र्बृह॒ते रणा॑य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । स्व॒:ऽसा । ज॒नय॑न् । अहा॑नि । जि॒गाय॑ । उ॒शिक्ऽभि॑: । पृत॑ना: । अ॒भि॒ष्टि: ॥ प्र । अ॒रो॒च॒यत् । मन॑वे । के॒तुम् । अह्ना॑म् । अवि॑न्दत् । ज्योति॑: । बृ॒ह॒ते । रणा॑य ॥११.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रः स्वर्षा जनयन्नहानि जिगायोशिग्भिः पृतना अभिष्टिः। प्रारोचयन्मनवे केतुमह्नामविन्दज्ज्योतिर्बृहते रणाय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । स्व:ऽसा । जनयन् । अहानि । जिगाय । उशिक्ऽभि: । पृतना: । अभिष्टि: ॥ प्र । अरोचयत् । मनवे । केतुम् । अह्नाम् । अविन्दत् । ज्योति: । बृहते । रणाय ॥११.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 11; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    (स्वर्षाः) स्वः-परम सुख का प्रदान करने वाला (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर (अहानि जनयन्) अन्धकारों को दूर करने वाले ज्योतिर्मय पदार्थों या दिनों को उत्पन्न करता हुआ (अभिष्टिः) साक्षात् कामनामय होकर या सर्वतोमुख प्रेरणा शक्ति से युक्त होकर (उशिग्भिः) सर्व वशकारी सामर्थ्यों या प्राणों से या काम्य पदार्थों या दीप्तिमान पदार्थों से (पृतनाः) समस्त प्रजाओं को (जिगाय) जीतता है, अपने वश करता है। और (मनेव) मननशील पुरुष के लिये (अन्हाम् केतुम्) तमो नाशक तेजों के ज्ञापक सूर्य को (प्रारोचयत्) अति दीप्त करता है। और (बृहते रणाय) उस बड़े भारी, अति रमणीय सुख, मोक्ष की प्राप्ति के लिये वह स्वयं (ज्योतिः) परम ज्योति को (अविन्दत्) प्राप्त करता है, धारण करता है। राजा के पक्ष में—वह राजा (स्वर्षाः) उत्तम सुखों का दाता, (अभिष्टिः) सर्वत्र गतिशील होकर (अहानि जनयत्) अत्याज्य, अहन्तव्य सेनाबलों को प्राप्त करके (उशिग्भिः) वशकारी सेनापतियों द्वारा सेनाओं को विजय करे। समस्त मनुष्यों को और समस्त सेनाओं के आज्ञापक सेनापति को सब से उन्नत करे। बड़े रमणीय राष्ट्र के लिये और महान् युद्ध के लिये (ज्योतिः) धनको प्राप्त करे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्।

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