अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 11/ मन्त्र 6
म॒हो म॒हानि॑ पनयन्त्य॒स्येन्द्र॑स्य॒ कर्म॒ सुकृ॑ता पु॒रूणि॑। वृ॒जने॑न वृजि॒नान्त्सं पि॑पेष मा॒याभि॑र्द॒स्यूँर॒भिभू॑त्योजाः ॥
स्वर सहित पद पाठम॒ह: । म॒हानि॑ । प॒न॒य॒न्ति॒ । अ॒स्य॒ । इन्द्र॑स्य । कर्म॑ । सऽकृ॑ता । पु॒रूणि॑ । वृ॒जने॑न । वृ॒जि॒नान् । सम् । पि॒पे॒ष॒ । मा॒याभि॑:। दस्यू॑न् । अ॒भिभू॑तिऽओजा: ॥११.६॥
स्वर रहित मन्त्र
महो महानि पनयन्त्यस्येन्द्रस्य कर्म सुकृता पुरूणि। वृजनेन वृजिनान्त्सं पिपेष मायाभिर्दस्यूँरभिभूत्योजाः ॥
स्वर रहित पद पाठमह: । महानि । पनयन्ति । अस्य । इन्द्रस्य । कर्म । सऽकृता । पुरूणि । वृजनेन । वृजिनान् । सम् । पिपेष । मायाभि:। दस्यून् । अभिभूतिऽओजा: ॥११.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 11; मन्त्र » 6
विषय - परमेश्वर और राजा।
भावार्थ -
(अस्य महः इन्द्रस्य) इस महान् परमेश्वर के (पुरुणि) बहुत से (सुकृता) उत्तम रीति से रचे हुए (कर्म) कर्मों की विद्वान् लोग (पनयन्ति) स्तुति करते हैं। (वृजनेन) वर्जन करने वाले, पाप से निवृत्त करने वाले श्रेयो मार्ग से या ज्ञान से (वृजिनान्) वर्जन करने योग्य पापाचारी को (सं पिपेष) विनाश कर देता है और (अभिभूत्योजाः) सर्वत्र सृष्टि उत्पन्न करने वाले या शत्रुनाशक वीर्य सामर्थ्य से युक्त वह (मायाभिः) अपनी मायाओं से, ज्ञानशक्तियों से (दस्यून्) दुष्ट पुरुषों को भी (सं पिपेष) चूर्ण कर डालता है।
राजा के पक्ष में—लोग इस समृद्ध राजा के बहुतसे पुण्य कर्मों की स्तुति करते हैं। वह पाप निवारक बल से पापाचारी पुरुषों को और (मायाभिः) ज्ञान कौशल से युक्त अद्भुत शक्तियों से दस्युओं को (संपिषेप) नाश करता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्।
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