अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 134/ मन्त्र 2
इ॒हेत्थ प्रागपा॒गुद॑ग॒धरा॑ग्व॒त्साः पुरु॑षन्त आसते ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒ह । इत्थ॑ । प्राक् । अपा॒क् । उद॑क् । अ॒ध॒राक् । व॒त्सा: । पुरु॑षन्त । आसते ॥१३४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
इहेत्थ प्रागपागुदगधराग्वत्साः पुरुषन्त आसते ॥
स्वर रहित पद पाठइह । इत्थ । प्राक् । अपाक् । उदक् । अधराक् । वत्सा: । पुरुषन्त । आसते ॥१३४.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 134; मन्त्र » 2
विषय - जीव, ब्रह्म, प्रकृति।
भावार्थ -
(वत्साः) जीवों के बसाने वाले लोक बिन्दु के समान उस अनन्त ब्रह्म में स्थित है। कहो कैसे ? उत्तर—ऐसे जैसे जल में घी के बिन्दु।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - missing
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