अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 22/ मन्त्र 3
इ॒ह त्वा॒ गोप॑रीणसा म॒हे म॑न्दन्तु॒ राध॑से। सरो॑ गौ॒रो यथा॑ पिब ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒ह । त्वा॒ । गोऽप॑रीणसा । म॒हे । म॒न्द॒न्तु॒ । राध॑से ॥ सर॑: । गौ॒र: । यथा॑ । पि॒ब॒ ॥२२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
इह त्वा गोपरीणसा महे मन्दन्तु राधसे। सरो गौरो यथा पिब ॥
स्वर रहित पद पाठइह । त्वा । गोऽपरीणसा । महे । मन्दन्तु । राधसे ॥ सर: । गौर: । यथा । पिब ॥२२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 22; मन्त्र » 3
विषय - राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ -
हे इन्द्र ! राजन् ! (इह) इस राष्ट्र में (गोपरीणसा) गो दुग्ध से मिश्रित, सोम के समान पृथिवी के ऐश्वर्यों सहित, अन्य ऐश्वर्य से (महे राधसे) बड़े भारी धनैश्वर्य की प्राप्ति के लिये (त्वा) तुझको प्रजाजन (मन्दन्तु) प्रसन्न और तृप्त करें। (यथा) जिस प्रकार (गौरः) गौर नामक प्यासा मृग (सरः पिबति) तालाब पर पानी पीता है उसी प्रकार तू इस राष्ट्र के ऐश्वर्य रस का (पिब) पान कर, भोग कर।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-३ त्रिशोकः काण्वः। ४-६ प्रियमेधः काण्वः। गायत्र्यः। षडृचं सूक्तम्॥
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