अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 22/ मन्त्र 5
आ हर॑यः ससृज्रि॒रेऽरु॑षी॒रधि॑ ब॒र्हिषि॑। यत्रा॒भि सं॒नवा॑महे ॥
स्वर सहित पद पाठआ । हर॑य: । स॒सृ॒जि॒रे॒ । अरु॑षी: । अधि॑ । ब॒र्हिषि॑ । यत्र॑ । अ॒भि । स॒म्ऽनवा॑महे ॥२२.५॥
स्वर रहित मन्त्र
आ हरयः ससृज्रिरेऽरुषीरधि बर्हिषि। यत्राभि संनवामहे ॥
स्वर रहित पद पाठआ । हरय: । ससृजिरे । अरुषी: । अधि । बर्हिषि । यत्र । अभि । सम्ऽनवामहे ॥२२.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 22; मन्त्र » 5
विषय - राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ -
(यत्र) जिस (बर्हिषि) महान्, वृद्धिशील राष्ट्र के उच्च राजपद पर हम तेरी (अभि सं नवामहे) सब प्रकार से स्तुति करते हैं उसी पद पर (अरूषीः) लालवर्ण, तेजोमय (हरयः) किरणें जिस प्रकार सूर्य के साथ संगत है उसी प्रकार (अधि ससृजिरे) वेगवान् अश्वारोहीगण तुझसे सुसंगत हों। अथवा—(अरुषीः) विद्या से रोचमान (हरयः) विद्वान् ज्ञानी पुरुष तुझे (संसृज्रिरे) धारण करते और सर्जन करते या मुखिया बनाते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-३ त्रिशोकः काण्वः। ४-६ प्रियमेधः काण्वः। गायत्र्यः। षडृचं सूक्तम्॥
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