अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 22/ मन्त्र 3
इ॒ह त्वा॒ गोप॑रीणसा म॒हे म॑न्दन्तु॒ राध॑से। सरो॑ गौ॒रो यथा॑ पिब ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒ह । त्वा॒ । गोऽप॑रीणसा । म॒हे । म॒न्द॒न्तु॒ । राध॑से ॥ सर॑: । गौ॒र: । यथा॑ । पि॒ब॒ ॥२२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
इह त्वा गोपरीणसा महे मन्दन्तु राधसे। सरो गौरो यथा पिब ॥
स्वर रहित पद पाठइह । त्वा । गोऽपरीणसा । महे । मन्दन्तु । राधसे ॥ सर: । गौर: । यथा । पिब ॥२२.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(इह) यहाँ पर (त्वा) तुझको (गोपरीणसा) भूमि की प्राप्ति से (महे) बड़े (राधसे) धन के लिये (मदन्तु) लोग प्रसन्न करें। तू [आनन्द रस को] (पिब) पी, (यथा) जैसे (गौरः) गौर हरिण (सरः) जल [पीता है] ॥३॥
भावार्थ
राजा राज्य पाकर प्रजा जनों को उन्नति के साथ प्रसन्न करके प्रसन्न होवे, जैसे प्यासा हरिण जल पीकर आनन्द पाता है ॥३॥
टिप्पणी
३−(इह) अत्र राज्ये (त्वा) त्वाम् (गोपरीणसा) णस कौटिल्ये गतौ च-क्विप्। नसत इति गतिकर्मा-निघ० २।१४। भूमिप्राप्त्या (महे) पूजनीयाय। महते (राधसे) धनाय (सरः) जलम् (गौरः) गौरमृगः (यथा) (पिब) आनन्दरसस्य पानं कुरु ॥
विषय
महे राधसे
पदार्थ
१. प्रभु जीव से कहते हैं कि (इह) = इस जीवन में (त्वा) = तुझे ये सोमकण (गोपरीणसा) = ज्ञान की रश्मियों के चारों ओर व्यापन के द्वारा [परि पूर्वाद् व्याप्तिकर्मणो नसते: विवप्] (महे राधसे) = महती सिद्धि के लिए (मन्दन्तु) = आनन्दित करें [मादयन्तु]। सोमकणों का रक्षण करता हुआ तू ज्ञानाग्नि के दीपन से ज्ञानरश्मियों से व्याप्त होकर अविद्यान्धकार का विनाश करनेवाला बन। यह तेरा सर्वमहान् साफल्य होगा। इसी से तेरा जीवन आनन्दमय होगा। २. (यथा) = जैसे (गौर:) = गौरमृग (सर:) = तालाब का जल पीता है इसी प्रकार तू सोम का (पिब) = पान कर-यह सोमपान ही तेरे सारे उत्कर्ष का मूल है।
भावार्थ
हमें चाहिए कि सोम-रक्षण द्वारा जीवन को ज्ञानाग्नि से दीप्त करें। यही आनन्द व साफल्य का मूल है।
भाषार्थ
हे उपासक! (इह) इस उपासना-मार्ग में, (गोपरीणसाः) स्तोताओं द्वारा परिगत अर्थात् घिरे हुए गुरुजन, (त्वा) तुझे (महे राधसे) महाधन मोक्ष की प्राप्ति के लिए (मन्दन्तु) प्रगतिशील करें। तू (पिब) भक्तिरस का पान कर। (यथा) जैसे कि (गौरः) तृषित मृग (सरः) तालाब के जल का पान करता है।
टिप्पणी
[मदन्तु=मद गतौ। परीणस=परि+नस् (=गतौ)। गो=स्तोता (निघं০ ३.१६)।]
विषय
राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे इन्द्र ! राजन् ! (इह) इस राष्ट्र में (गोपरीणसा) गो दुग्ध से मिश्रित, सोम के समान पृथिवी के ऐश्वर्यों सहित, अन्य ऐश्वर्य से (महे राधसे) बड़े भारी धनैश्वर्य की प्राप्ति के लिये (त्वा) तुझको प्रजाजन (मन्दन्तु) प्रसन्न और तृप्त करें। (यथा) जिस प्रकार (गौरः) गौर नामक प्यासा मृग (सरः पिबति) तालाब पर पानी पीता है उसी प्रकार तू इस राष्ट्र के ऐश्वर्य रस का (पिब) पान कर, भोग कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-३ त्रिशोकः काण्वः। ४-६ प्रियमेधः काण्वः। गायत्र्यः। षडृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Self-integration
Meaning
Here may the lovers of cows entertain you with milk and soma for the achievement of great competence and success so that you may drink like the thirsty stag drinking at the pool.
Translation
In this kingdom let the people satisfy you with the juice of herb mixed with milk for the attainment of great wealth and you like the male dear which drinks laké-water drink it.
Translation
In this kingdom let the people satisfy you with the juice of herb mixed with milk for the attainment of great wealth and you like the male dear which drinks lake water drink it.
Translation
Let the people please and satisfy thee with large means of pleasure and satisfaction, like the sweet juices with cow’s milk and other products of the land, for great fortunes. Let thee enjoy thyself to thy fill, like the deer at the tank of water.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(इह) अत्र राज्ये (त्वा) त्वाम् (गोपरीणसा) णस कौटिल्ये गतौ च-क्विप्। नसत इति गतिकर्मा-निघ० २।१४। भूमिप्राप्त्या (महे) पूजनीयाय। महते (राधसे) धनाय (सरः) जलम् (गौरः) गौरमृगः (यथा) (पिब) आनन्दरसस्य पानं कुरु ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজপ্রজাধর্মোপদেশঃ
भाषार्थ
(ইহ) এখানে (ত্বা) তোমাকে (গোপরীণসা) ভূমি প্রাপ্তির থেকে (মহে) বৃহৎ (রাধসে) ধনসম্পদের জন্য (মদন্তু) জনগণ প্রসন্ন করুক। তুমি [আনন্দ রস] (পিব) পান করো, (যথা) যেমন (গৌরঃ) গৌর হরিণ (সরঃ) জল [পান করে]।।৩।।
भावार्थ
রাজা রাজ্য নিয়ন্ত্রণে রেখে প্রজাদের উন্নতির সাথে প্রসন্ন করে, প্রসন্ন হোক, যেমন তৃষ্ণার্ত হরিণ জল পান করে আনন্দিত হয়।।৩।।
भाषार्थ
হে উপাসক! (ইহ) এই উপাসনা-মার্গে, (গোপরীণসাঃ) স্তোতাদের দ্বারা পরিগত অর্থাৎ বেষ্টিত গুরুজন, (ত্বা) তোমাকে (মহে রাধসে) মহাধন মোক্ষ প্রাপ্তির জন্য (মন্দন্তু) প্রগতিশীল করুক। তুমি (পিব) ভক্তিরস পান করো। (যথা) যেমন (গৌরঃ) তৃষ্ণার্ত মৃগ (সরঃ) পুকুরের জল পান করে।
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