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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 22 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 22/ मन्त्र 4
    सूक्त - प्रियमेधः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-२२
    23

    अ॒भि प्र गोप॑तिं गि॒रेन्द्र॑मर्च॒ यथा॑ वि॒दे। सू॒नुं स॒त्यस्य॒ सत्प॑तिम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । प्र । गोऽप॑तिम् । गि॒रा । इन्द्र॑म् । अ॒र्च॒ । यथा॑ । वि॒दे ॥ सू॒नम् । स॒त्यस्य॑ । सत्ऽप॑तिम् ॥२२.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि प्र गोपतिं गिरेन्द्रमर्च यथा विदे। सूनुं सत्यस्य सत्पतिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । प्र । गोऽपतिम् । गिरा । इन्द्रम् । अर्च । यथा । विदे ॥ सूनम् । सत्यस्य । सत्ऽपतिम् ॥२२.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 22; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (1)

    विषय

    राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्य !] (गोपतिम्) पृथिवी के पालक, (सत्यस्य) सत्य के (सूनुम्) प्रेरक, (सत्पतिम्) सत्पुरुषों के रक्षक (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले राजा] को, (यथा) जैसा (विदे) वह है, (गिरा) स्तुति के साथ (अभि) सब ओर से (प्र) अच्छे प्रकार (अर्च) तू पूज ॥४॥

    भावार्थ

    जैसे राजा उत्तम गुणवाला हो, वैसे ही मनुष्यों को उसकी यथार्थ बड़ाई करनी चाहिये ॥४॥

    टिप्पणी

    मन्त्र ४-६ ऋग्वेद में हैं-८।६९ [सायणभाष्य ८]। ४-६ और सामवेद में हैं-उ० ७।१। तृच १ और मन्त्र १ सामवेद में है- पू० २।८।४। तीनों मन्त्र आगे हैं-अथर्व० २०।९२।१-३ ॥ ४−(अभि) सर्वतः (प्र) प्रकर्षेण (गोपतिम्) भूपालम् (गिरा) स्तुत्या (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं राजानम् (अर्च) पूजय (विदे) विद सत्तायाम्, लडर्थे लिट्, छान्दसं रूपम्। विविदे। विद्यते स इन्द्रः (सूनुम) अ० ६।१।२। षू प्रेरणे-नु। प्रेरकम्। प्रचारकम् (सत्यस्य) यथार्थज्ञानस्य (सत्पतिम्) सत्पुरुषाणां रक्षकम् ॥

    इंग्लिश (1)

    Subject

    Self-integration

    Meaning

    To the best of your knowledge and culture and with the best of your language, worship and adore Indra, protector of stars and planets, lands and cows, language and culture, creator of the dynamics of existence and protector of its constancy.

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    मन्त्र ४-६ ऋग्वेद में हैं-८।६९ [सायणभाष्य ८]। ४-६ और सामवेद में हैं-उ० ७।१। तृच १ और मन्त्र १ सामवेद में है- पू० २।८।४। तीनों मन्त्र आगे हैं-अथर्व० २०।९२।१-३ ॥ ४−(अभि) सर्वतः (प्र) प्रकर्षेण (गोपतिम्) भूपालम् (गिरा) स्तुत्या (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं राजानम् (अर्च) पूजय (विदे) विद सत्तायाम्, लडर्थे लिट्, छान्दसं रूपम्। विविदे। विद्यते स इन्द्रः (सूनुम) अ० ६।१।२। षू प्रेरणे-नु। प्रेरकम्। प्रचारकम् (सत्यस्य) यथार्थज्ञानस्य (सत्पतिम्) सत्पुरुषाणां रक्षकम् ॥

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