अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 25/ मन्त्र 3
अधि॒ द्वयो॑रदधा उ॒क्थ्यं वचो॑ य॒तस्रु॑चा मिथु॒ना या स॑प॒र्यतः॑। असं॑यत्तो व्र॒ते ते॑ क्षेति॒ पुष्य॑ति भ॒द्रा श॒क्तिर्यज॑मानाय सुन्व॒ते ॥
स्वर सहित पद पाठअधि॑ । द्वयो॑: । अ॒द॒धा॒: । उ॒क्थ्य॑म् । वच॑: । य॒तऽस्रु॑चा। मि॒थु॒ना । या । स॒प॒र्यत॑: ॥ अस॑म्ऽयत्त: । व्र॒ते । ते॒ । क्षे॒ति॒ । पुष्य॑ति । भ॒द्रा । श॒क्ति: । यज॑मानाय । सु॒न्व॒ते ॥२५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अधि द्वयोरदधा उक्थ्यं वचो यतस्रुचा मिथुना या सपर्यतः। असंयत्तो व्रते ते क्षेति पुष्यति भद्रा शक्तिर्यजमानाय सुन्वते ॥
स्वर रहित पद पाठअधि । द्वयो: । अदधा: । उक्थ्यम् । वच: । यतऽस्रुचा। मिथुना । या । सपर्यत: ॥ असम्ऽयत्त: । व्रते । ते । क्षेति । पुष्यति । भद्रा । शक्ति: । यजमानाय । सुन्वते ॥२५.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 25; मन्त्र » 3
विषय - राजा का कर्त्तव्य।
भावार्थ -
हे इन्द्र ! राजन् ! परमेश्वर ! (यतस्रुचा) वीर्य की रक्षा करने वाले अथवा अपने प्राणों की रक्षा करने वाले, (या) जो (मिथुना) स्त्री पुरुष तेरी (सपर्यतः) पूजा सत्कार करते हैं तू (द्वयोः अधि) उन दोनो को (उक्थ्यम्) उपदेश करने योग्य ज्ञानमय (वचः) आज्ञा-वचन (अदधाः) प्रदान करता है। (ते व्रते) तेरे नियम व्यवस्था में (असंयत्तः) नियम से न रहने वाला, अजितेन्द्रिय पुरुष (क्षेति) विनाश को प्राप्त होता है। (सुन्वते यजमानाय) तेरी आज्ञा पालन करने वाले, तेरे प्रति कर-प्रदान या मनोयोग देने वाले या तेरी उपासना, पूजा करने वाले पुरुष की (भद्रा) सुखदायिनी कल्याणी (शक्तिः) शक्ति (पुष्यति) पुष्ट होती है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-६ गोतमो राहूगण ऋषिः। ७ अष्टको वैश्वामित्रः। १-६ जगत्यः। ७ त्रिष्टुप् षडृचं सूक्तम्॥
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