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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 37

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 37/ मन्त्र 6
    सूक्त - वसिष्ठः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३७

    सना॒ ता त॑ इन्द्र॒ भोज॑नानि रा॒तह॑व्याय दा॒शुषे॑ सु॒दासे॑। वृष्णे॑ ते॒ हरी॒ वृष॑णा युनज्मि॒ व्यन्तु॒ ब्रह्मा॑णि पुरुशाक॒ वाज॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सना॑ । ता । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । भोज॑नानि । रा॒तऽह॑व्याय । दा॒शुषे॑ । सु॒ऽदासे॑ ॥ वृष्णे॑ । ते॒ । हरी॒ इति॑ । वृष॑णा । यु॒न॒ज्मि॒ । व्यन्तु॑ । ब्रह्मा॑णि । पु॒रुऽशा॒क॒ । वाज॑म् ॥३७.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सना ता त इन्द्र भोजनानि रातहव्याय दाशुषे सुदासे। वृष्णे ते हरी वृषणा युनज्मि व्यन्तु ब्रह्माणि पुरुशाक वाजम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सना । ता । ते । इन्द्र । भोजनानि । रातऽहव्याय । दाशुषे । सुऽदासे ॥ वृष्णे । ते । हरी इति । वृषणा । युनज्मि । व्यन्तु । ब्रह्माणि । पुरुऽशाक । वाजम् ॥३७.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 37; मन्त्र » 6

    भावार्थ -
    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (रातहव्याय) अन्नादि भोग्य पदार्थों के त्यागी (दाशुषे) दानशील, (सुदासे) कल्याणमय दातव्य पदार्थों के स्वामी पुरुष के लिये (ते) तेरे (सना) अनादि सिद्ध (ता) वे वे अनेक (भोजनानि) भोग योग्य ऐश्वर्य पदार्थ हैं। हे (पुरुशाक) बहुत शक्तिमन् ! (ते वृष्णे) तुम बलवान् परम पुरुष के प्राप्त करने के लिये (वृषणा) बलवान् (हरी) अश्वों के समान हरणशील वेगवान् प्राण और अपान दोनों को (युनज्मि) योग द्वारा वश करता हूं। और (ब्रह्माणि) ब्रह्म विषयक समस्त ज्ञान और कर्म (वाजम्) वीर्य को (व्यन्तु) प्राप्त करें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः। त्रिष्टुभः। इन्द्रो देवता। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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